मंगलवार, 30 जून 2009

भारत रत्न के हकदार है दिवंगत नरसिंह राव

पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की 89वीं जयंती के मौके पर पीआरपी सुप्रीमो चिरंजीवी ने यह मांग कर डाली कि आंध्र के महान सपूत नरसिंह राव को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। तो आइए जानते है कि दिवंगत नरसिंह राव किस तरह भारत रत्न के हकदार है।
मनमोहन सिंह इस देश के 14 वें प्रधानमंत्री है और उनसे पहले जो 13 प्रधानमंत्री आए उनमें से अधिकांश लोग ऐसे थे जिनका इस देश के विकास या देश को नई दिशा देने में ज्यादा योगदान नहीं है। वे लोग अपनी किस्मत के बलबूते और हमारी बदकिस्मती से इस देश की गद्दी पर बैठे और शासन कर बिदा हुए। आज हमें उनकी सूची खोलकर नहीं बैठना है लेकिन सकारात्मक बात करनी है, इस देश को एक नई दिशा देने में जिनका योगदान बहुत बडा है ऐसे लोगों की बात करनी है। हमारा देश आज जिस मुकाम पर है उसे वहां तक पहुंचाने में तीन प्रधानमंत्रियों का हाथ है। पहले जवाहर लाल नेहरु, दूसरे राजीव गांधी और तीसरे नरसिंह राव।
जो लोग नेहरु-गांधी खानदान को गालियां देते रहते है उन लोगों को शायद यह बात पसंद नहीं आयेगी लेकिन पसंद-नापसंद से हकीकत नहीं बदल जाती। नेहरु ने इस देश में बहुत गडबड की लेकिन उसके साथ इस देश को स्थिरता देने में और एक दिशा देने में उनका योगदान बहुत बडा था। देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने कुछेक गलत नीतियां अपनाई लेकिन कृषि से लेकर बडे बांध बांधने तक के मामले उन्होंने जो अवलोकन बताया उसके लिए उन्हें सलामी देनी पडेगी। आधुनिक भारत की नींव नेहरु ने ही डाली थी। राजीव गांधी का योगदान नेहरु जितना ही बडा है। राजीव गांधी के आगमन से पहले यह देश अक्षरश: 18वीं सदी में जीता था। जरा सोचे, उस जमाने में अमरिका फोन लगाना हो तो भी कम से कम 24 घंटे तो लगते थे। राजीव ने इस देश में टेलिकॉम क्रांति कर इस देश को अत्याधुनिक बनाया। आज इस देश में भिखारी भी मोबाइल फोन पर बात करते है और इन्टरनेट तो सहज है ही जो राजीव गांधी की मेहरबानी है। राजीव गांधी ने इस देश में से लाइसन्स-राज हटाने की भी शुरुआत करवाई।
नरसिंह राव का योगदान राजीव और नेहरु जितना ही है। हम आज जो आर्थिक समृद्धि भोग रहे है और दुनियाभर के आर्थिक समृद्ध देशों के निकट है यह नरसिंह राव की मेहरबानी से है। नरसिंह राव को प्रधानमंत्री पद किस्मत के दम पर ही मिला। नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तब यह देश अक्षरश: आर्थिक गिरावट के करीब था। नरसिंह राव से पहले चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे और पूरी जिंदगी समाजवाद का बिन बजाने वाले चंद्रशेखर ने इस देश के सोने को बेचने निकाला था। नरसिंह राव आये तब सरकारी खजाना खाली था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए। नरसिंह राव ने बहुत सोचा और उसके बाद एक ऐतिहासिक निर्णय लिया। उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया और इस देश के अर्थतंत्र को उदारीकरण के रास्ते ले गये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खोले। मनमोहन सिंह को राजनीति से कोई संबंध नहीं था और इस देश में कोई गैरराजनीतिज्ञ वित्तमंत्री पद जैसे महत्व के पद पर बैठे तो आसमान टूट जाए ऐसी स्थिति थी। नरसिंह राव के इस निर्णय के सामने कांग्रेस में ही बहुत हंगामा हुआ था। पुराने कांग्रेसियों ने ऐसी कांय-कांय शुरु की कि कांग्रेस ने इस देश में जिसकी नींव डाली उस समाजवाद को नरसिंह राव ने तहस-नहस किया। लेकिन नरसिंह राव इन सब विरोधों के बावजूद आर्थिक उदारीकरण के मामले आगे बढे। नरसिंह राव ने उसके बाद पांच साल में जो कुछ किया वह इतिहास है। नरसिंह राव ने शेयर बाजार पर नियंत्रण दूर किए, लाइसन्स-राज हटाया और विदेशी निवेश के लिए देश के दरवाजे खोल दिए। नरसिंह राव के कारण ही 1991-92 में भारत में मुश्किल से 13 करोड डोलर का विदेशी निवेश आया जो पांच साल बाद बढकर साढे पांच अरब डोलर हो गया था। नरसिंह राव ने इस देश के आर्थिक तसवीर को बदलने में जो योगदान दिया है उसके आगे मेरा यह आलेख बहुत ही छोटा है।
राव के एक ओर योगदान की बात करे तो भले ही भाजपा 1998 में पोखरन में किए परमाणु परीक्षण का श्रेय ले जाए और खुद ने इस देश को परमाणु ताकतवाला बनाया ऐसा दावा करे लेकिन हकीकत यह है कि उस परमाणु परीक्षण का श्रेय राव को जाता है। यह कोई मजाक या गप्प नहीं है, हकीकत है। भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने कूबुल किया है। नरसिंह राव की मृत्यु हुई तब वाजपेयी ने उन्हें श्रध्धाजंलि देते हुए कहा था कि वे 1996 में प्रधानमंत्री बने तब नरसिंह राव ने उन्हें एक चिट्ठी दी थी और उसमें लिखा था कि, बम तैयार है, कभी भी फोड देना। राव ने वाजपेयी को यह बात सार्वजनिक नहीं करने के लिए बिनती की थी। वाजपेयी उस समय सत्ता में 13 दिन ही टिक पाये थे इसलिए बम नहीं फोड सके लेकिन दूसरी बार सत्ता मिली तभी उन्होंने यह काम किया और श्रेय लिया। वाजपेयी ने नरसिंह राव की बिनती के कारण यह बात सार्वजनिक नहीं होने दी लेकिन उनके अवसान के बाद यह रहस्य खोला। नरसिंह राव के योगदान को भारत में बहुत सामान्य तरीके से लिया गया है और उनके काल में जो कौभांड हुए उसे ज्यादा महत्व दिया गया है। JMM कौभांड या अन्य कौभांड सचमुच गंभीर थे लेकिन राव का दूसरा योगदान उन कौभांडों से ज्यादा बडा है यह मानना पडेगा।
हमारे देश में अवार्डस देने के लिए कोई नीति-नियम नहीं है और यह बात भारत रत्न जैसे सर्वोच्च माने जाते अवार्ड को भी लागू होता है। जिन्हें भारत रत्न मिला है ऐसे लोगों की सूची देखे तो पता चलेगा कि यहां पर सब पोलमपोल है । इस सूची में अधिकांश ऐसे नमूने आ गए है जिनकी औकात कुछ नहीं लेकिन राजनीति के दम पर वे लोग भारत रत्न बनकर बैठे है। भारत रत्न का अपमान हो ऐसे लोगों को यह अवार्ड मिला है। ऐसे लोगों की चर्चा कर भारत रत्न अवार्ड को अपमानित नहीं करना चाहती हूं लेकिन उनकी तुलना में नरसिंह राव 100 प्रतिशत ज्यादा योग्य है।
जय हिंद

बुधवार, 24 जून 2009

बहुत पुराना है खंडूरी के इस्तीफे का झमेला

लोकसभा चुनाव में भाजपा का सूपडा साफ होने और उसके कारण चल रहे धमासान के चलते पहला विकेट गिरा है और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी ने इस्तीफा दे दिया है। उत्तराखंड में लोकसभा की पांच बैठके है जिस पर कांग्रेस ने अपना बुजडोलर घुमाकर यह पांच बैठके जीत ली थी और भाजपा का सफाया कर दिया था। इस हार की वजह से खंडूरी के विरोधी तलवार लेकर खडे हो गए थे और हल्ला मचाना शुरु कर दिया था। खंडूरी के विरोधियों की जो सेना है उसकी अगवानी भूतपूर्व मुख्यमंत्री भगतसिंह कोशियारी ने की है। कोशियारी २००१ में दो साल के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे लेकिन २००२ के चुनाव में नारायण दत्त तिवारी के कांग्रेस ने भाजपा का सफाया कर दिया था।
दो साल पूर्व मार्च में उत्तराखंड विधानसभा चुनाव हुए तब भाजपा को स्पष्ट बहुमती नहीं मिली थी लेकिन वह सबसे बडी पार्टी के रुप में उभरी थी। कोशियारी उस समय भी गद्दी पर बैठना चाहते थे लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। कोशियारी ने उस समय बहुत तिकडम किए लेकिन भाजपा के नेताओं ने उन्हें एक ओर बैठा दिया था और वाजपेयी के करीबी खंडूरी का राजतिलक कर उन्हें गद्दी पर बिठा दिया था। कोशियारी खंडूरी के लिए कोई झमेला खडा न करे इसलिए उन्हें राज्यसभा के सदस्य बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। हालांकि कोशियारी बाज नहीं आते थे लेकिन उस समय खंडुरी को हटाने के लिए उनके पास कोई बहाना नहीं था इसलिए उनकी दाल नहीं गली। इस तरह खंडूरी के इस्तीफे का झमेला बहुत पुराना है।
उत्तराखंड में भाजपा की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जो जीत हासिल की उसके साथ ही कोशियारी को बहाना मिल गया और वे फिर से शुरु हो गए। कोशियारी ने सबसे पहले राज्यसभा में से इस्तीफा देने का नाटक किया और बाद में अपने समर्थको के जरिए तिकडम शुरु करवाये। राजनाथ के मना लेने के बाद कोशियारी ने इस्तीफा तो वापस ले लिया लेकिन उनके खेल जारी ही थे। भाजपा ने कोशियारी के समर्थको को एकसाथ पार्टी में से निकालने का प्रयास भी करके देखा लेकिन हुआ उल्टा। उसके कारण ज्वालामुखी ज्यादा भयानक स्वरुप में तब्दील हो गई और भाजपा की सरकार गिरे ऐसी हालत हो गई इसलिए खंडूरी को बलि का बकरा बनाने का निर्णय लिया गया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सिर्फ उत्तराखंड में हार सहा हो ऐसा नहीं है। मध्यप्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ को छोड भाजपा का परफोर्मन्स हर जगह कमजोर रहा है। इसका विश्लेषण होना चाहिए, हार के सही कारण ढूंढे जाने चाहिए लेकिन भाजपा यह सब करने के बजाय इस प्रकार के निर्णय लेकर संतोष मान रही है। मैं खंडूरी की तरफदारी नहीं कर रही हूं। लेकिन मुख्य मुदा यह है कि भाजपा जो कर रही है वह पलायनवाद ही है।
लोकसभा चुनाव का सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच था और इससे भी ज्यादा साफ शब्दों में कहूं तो जनता को मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी में से किसी एक को चुनने का था और जनता ने वो किया। इसमें खंडूरी या रमनसिंह या अन्य कोई मुख्यमंत्री बीच में कहां से आए ? लोकसभा चुनाव में जनता राष्ट्रीय स्तर पर नेतागीरी को देख चुनाव करती है और भाजपा के राष्ट्रीय दर्जे की नेतागीरी में कुछ नही था। क्योंकि यह लोग मनमोहन सिंह टीम से अच्छा वहीवट नहीं दे सकते है ऐसा फैसला इस देश की जनता का था। ऐसा नहीं है कि लोकसभा चुनाव में लोग राज्य सरकार के काम को ध्यान में नहीं लेते लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव राष्ट्रीय दर्जे की नेतागीरी का होता है और भाजपा के राष्ट्रीय नेतागण यह प्रभाव डालने में असफल रहे है। वास्तव में उनमें नैतिक हिम्मत होती तो उन्हें सबसे पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था और बाद में खंडूरी की बलि लेनी चाहिए थी।
हालाकि भाजपा में स्थिति उल्टी है। भाजपा में हार के लिए जो सचमुच में जिम्मेदार है ऐसे लालकृष्ण आडवाणी को कुछ नहीं होता। अगर उत्तराखंड में भाजपा के हार के लिए वहा के मुख्यमंत्री को दोषी माने जाते हो तो फिर समग्र देश में भाजपा की जो हार हुई उसके लिए राजनाथ सिंह और आडवाणी को भी इस्तीफा दे देना चाहिए। यह न्याय की बात है। नैतिकता की बात है। राजनाथ सिंह ने भाजपा कार्यकारिणी बैठक में हार के लिए खुद को दोषी ठहराया और खुद महान बलिदान दे रहे हो ऐसा दंभ भी किया लेकिन उसके बाद क्या हुआ ? आडवाणी तो उनसे भी बडे उस्ताद है। लोकसभा चुनाव परिणाम घोषित हुए और भाजपा का सूपडा साफ हुआ उसके साथ ही उन्होंने घोषणा की थी कि वे खुद लोकसभा में विरोध पक्ष के नेता नहीं बनेंगे। आडवाणी को भला किसने कहा था कि उन्हें विरोध पक्ष का नेता बनाना है। आडवाणी ने अपनी चालाकी दिखाई और किसी को उन्हें हटाने का खयाल आये उससे पहले ही आनाकानी कर वे खुद इस पद के दावेदार है ऐसी घोषणा कर दी और आनाकानी के बाद विपक्ष के नेता पद पर बैठ गए। राजनाथ ने यही चालाकी भाजपा के कार्यकारिणी बैठक में बताई। चलो भई, यह उनका प्रश्न है हमें इससे क्या? भाजपा कुछ भी करे, खंडुरी को बिना कसूर के घर भेज दे, आडवाणी और राजनाथ की पालखी उठाकर घूमे या उनके मंदिर बनवाकर उनकी सुबह शाम आरती करे मैंने तो सिर्फ ईमानदारी और पारदर्शिता की बात की है। भाजपा इस देश के दो मुख्य राजनीतिक पार्टीओं में से एक है और अगर जनता उनसे इमानदारी और पारदर्शिता की उम्मीद रखती है तो इसमें गलत कुछ भी नहीं । कोई भी पार्टी सत्ता में आए तब किस तरह पेश आयेगी उसका तर्जुबा हमें उनके रवैये और बर्ताव की छाया से मिलता है लेकिन भाजपा जिस प्रकार का रवैया अपना रही है उसे देख लगता है उसे इमानदारी और पारदर्शिता में दिलचस्पी नहीं है। भाजपा के नेताओं को तटस्थ मूल्यांकन में दिलचस्पी नहीं है और ना ही हार की नैतिक जिम्मेदारी को स्वीकारने में। भाजपा के लिए लोकसभा का यह चुनाव सबक है लेकिन भाजपा उसमें से कुछ भी स्वीकारने को तैयार नहीं है, और नेता कुछ भी छोडने को तैयार नहीं है और यह भाजपा की बदकिस्मती है जिसकी किमत वह चुका रही है।
जय हिंद
जय जगन्नाथ

शनिवार, 20 जून 2009

लालगढ से दरक रहा है वामपंथ का दुर्ग

पश्चिम बंगाल के तख्त पर काले नाग की तरह लिपटे वामपंथियों के सामने जिस तरह एक के बाद एक झमेले आ रहे है उसे देख लगता है कि उनके दिन भारी चल रहे है। बंगाल में पहले नंदीग्राम का झमेला खडा हुआ और इस मुद्दे के बलबूते एकदम थक-हार चुकी ममता फिर से खडी हो पाई। बंगाल सरकार ने किसानों की जमीन हडपकर इन्डोनेशिया के सलीम ग्रूप को दी उसके सामने ममता ने ऐसी सख्त लडाई चलाई की वामपंथियों को दिन में तारे दिखा दिए। वामपंथी बंगाल में इतने सालों तक टिक पाए उसका मुख्य कारण उनकी गुंदागर्दी है और नंदीग्राम में ममता की लडाई को रोकने के लिए उन्होंने गुंदागर्दी ही की लेकिन ममता ने उनकी गुंदागर्दी का ऐसा जवाब दिया कि वामपंथी और सलीम ग्रूप को दूम उठाकर भागना पडा।
नंदीग्राम के झटके से उबरे उससे पहले तो सिंगुर का झमेला खडा हो गया और ममता ने इसबार बडे पैमाने पर बंगाल में एक लाख रुपये की नेनो कार बनाने निकले ताता को चमत्कार दिखा भगा दिया और बुद्धदेव की इज्जत का खुरदा कर दिया। वामपंथी इस चोट से उबरे उससे पहले लोकसभा चुनाव आ गए और नंदीग्राम कथा सिंगुर की लडाई के बल पर ममता बेनर्जी जम गई और वामपंथियों का सूपडा साफ कर दिया। ममता-कांग्रेस की जुगलबंधी ने बंगाल की ४८ में से २५ बैठक कब्जे कर वामपंथियों को हतप्रभ कर दिया।
वामपंथी इस चोट से उबरे उससे पहले उनके लिए नया झमेला खडा हुआ है और नंदीग्राम, सिंगुर के बाद अब लालगढ में होली जली है। हालांकि, नंदीग्राम और सिंगुर की तरह लालगढ को जलाने के पीछे ममता का हाथ नहीं है लेकिन वामपंथियों के नाते-रिश्तेदार सीपीआइ - एनएल वाले ही है। वामपंथियों के लिए लालगढ की समस्या ज्यादा खतरनाक है क्योंकि ममता चाहे निजी तौर पर तोडफोड को बढावा देती हो लेकिन उन्होंने जो लडाई चलाई वह सार्वजनिक रुप से तो अहिंसक और शांतिपूर्ण थी जबकि लालगढ में तो मामला पहले से ही जिसकी लाठी उसकी भेंस का है और सीपीआइ-एमएल वाले गोली का जवाब गोली से देने में मानते है।
लालगढ में अभी जो होली सुलगी है उसके मूल में गत नवम्बर में घटित घटना है। बंगाल के मुख्यमंत्री भट्टाचार्य एक स्टील प्लान्ट के भूमिपूजन में से वापिस आ रहे थे तब इस प्लान्ट का विरोध कर रहे सीपीआइ-एमएल ने ब्लास्ट कर भट्टाचार्य को उडा देने का प्रयास किया और उसके कारण पुलिस टूट पडी। पुलिस ने यह ब्लास्ट करनेवालों को ढूंढने के लिए गांवों में छापे मारे। क्रोधित लोगों ने पुलिस के सामने मोरचा शुरु किया और उसका फायदा उठाकर सीपीआइ-एमएल वाले टूट पडे। अभी जो हालात है वह यह है कि लालगढ की ओर जाते मार्ग सीपीआइ-एमएल के कार्यकर्ताओं ने तोड दिये है या बंद कर दिये है और पुलिस अंदर घुस नहीं सकती। यह क्षेत्र जंगल का क्षेत्र है और यहा आदिवासियों का प्रमाण ज्यादा है। सीपीआइ-एमएल आदिवासियों को आगे कर लडाई लड रहे है और उसमें बंगाल पुलिस त्रस्त हो गई है। लालगढ का झमेला कब सुलझेगा पता नहीं लेकिन वास्तव में अभी जो कुछ भी हो रहा है वह वामपंथियों के लिए अपने हाथों से अपने गाल पर तमाचा मारने जैसा है। सीपीआइ-एमएल मूल तो सीपीएम का ही पाप है और इसकी जडें १९६० के दशक में सीपीएम ने शुरु की नक्सलवादी अभियान में है। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के समय साम्यवादियों में कुछेक भारततरफी थे जबकि ज्योति बसु, हरकिशनसिंह सुरजित आदि गद्दार चीन तरफी थे। इन गद्दारों ने बाद में सीपीआइ में बंटवारा कर सीपीएम की रचना की थी। उस समय बंगाल में कांग्रेस मजबूत थी और सीपीएम को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह सत्ता में आयेगी इसलिए उसने अपने दो नेता चारु मजुमदार और कनु सान्याल को आगे कर हिंसक अभियान की शुरुआत करवाई थी। तो आइये जानते है कौन है यह चारु मजुमदार और कनु सान्याल....
* भारत में वामपंथी हिंसा यानि कि नक्सलवाद के प्रणेता माने जाते चारु और सान्याल दोनों मूल सीपीएम के सदस्य थे। इन दोनों ने बंगाल के नक्सलबारी गांव से जमींदारों के सामने सशस्त्र लडाई की शुरुआत करवाकर भारतीय इतिहास में नक्सलवाद नामक एक नये विचारधारा का बीज बोया।
* चारु मजुमदार के पिताजी स्वातंत्र्य सेनानी थे और चारु कॉलेजकाल से ही क्रांति के रंग में रंगे हुए थे। १९४६ में उन्होंने जमींदारों के सामने तेभागा अभियान में हिस्सा लिया था और आजादी के बाद वे साम्यवादी पार्टी में जुडे थे। १९६२ में उन्हें जेल हुई थी और साम्यवादियों में बंटवारा होने के बाद वे चीन के पीठ्ठु नेताओं के सीपीएम के साथ गए थे।
* सान्याल और मजुमदार हिंसक क्रांति के जरिये इस देश में साम्यवादी शासन की स्थापना करने के ख्वाब देखते थे। १९६९ में कनु सान्याल और चारु मजुमदार ने नक्सलवादी अभियान शुरु करवाकर और सीपीएम में बंटवारा करवाकर नये गुट की रचना की। १९६९ में दोनों ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसीस्टलेनिन) की रचना की और मजुमदार उसके जनरल सेक्रेटरी बने। हालांकि दोनों के सिर पर तवाई के कारण दोनों भागते फिरते थे।
* सान्याल १९७० में पकडे गये उसके बाद उन्हें आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जेल में धकेल दिया गया और एक केस में उन्हें सात साल की सजा हुई थी।
* १९७२ में चारु मजुमदार पकडे गये और उन्हें जेल भेजा गया। गिरफ्तारी के १२ दिन बाद ही मजुमदार की अलीपोर जेल में रहस्यमय मौत हुई और उसके साथ ही नक्सलवाद के तांडव की शुरुआत हुई।
* मजुमदार के मौत के बाद सान्याल डर गये और उन्होंने खुद हिंसा का रास्ता छोड देने की घोषणा की। हालांकि उसके बाद भी सान्याल की रिहाई संभव नहीं हो पाई लेकिन १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई और बंगाल में ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने उसके बाद बसु ने खुद दिलचस्पी ले सान्याल को जेल में से मुक्त करवाया था।
* जेल में से रिहा होने के बाद सान्याल ने राजनीतिक अभियान शुरु किए और साथ में हिंसा का रास्ता छोड दिया। अभी सान्याल सीपीआइ (एम-एल) के महासचिव है और ममता बेनर्जी के करीबी है। सिंगुर में ममता ने किए आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर इस आंदोलन को सफल बनाने में मदद की थी।
सीपीएम उस वक्त चीन की तरह भारत में भी हिंसक क्रांति कर साम्यवादी शासन की स्थापना का ख्वाब देखती थी। सान्याल और मजुमदार को सीपीएम का समर्थन था इसलिए वे जम गए और बंगाली युवकों के हाथों में बंदूक और बम थमाकर उन्हें हिंसा के रास्ते भेज दिया। १९६४ में सीपीएम की रचना हुई और १९६५ से यह खेल शुरु हुआ लेकिन १९६७ में लोकसभा चुनाव में सीपीएम को अच्छी बैठके हासिल हुई उसके साथ ही उसके तेवर बदल गए और उसे लगने लगा कि चुनाव जीत कर ही सत्ता हासिल की जा सकती है तो फिर यह मौत का तांडव करने से क्या फायदा? सीपीएम ने तुरंत ही सान्याल और मजुमदार से दूरी बना ली। गिन्नाये मजुमदार-सान्याल ने सीपीएम से अलग होकर नया चोका मारा यानि कि सीपीआइ-एमएल। दोनों ने नक्सलवाद चलाया। हालांकि बंगाल में सिध्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री बने उसके बाद उन्होंने नक्सलवाद को गोली का जवाब गोली से दे-देकर लगभग खत्म कर दिया और मजुमदार को भी जेल में खत्म कर दिया लेकिन इन दोनों ने हिंसा का जो बीज बोया उसे खत्म नहीं कर पाये। वामपंथियों ने जिस हिंसा के नाग को पाला है आज वही नाग उसके सामने फन फैलाये खडा है और उसे डस रहा है।
जयहिंद

बुधवार, 17 जून 2009

भाजपा में ज्वालामुखी और ईमानदारी का ढोंग

लोकसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त भाजपा के नेताओं में अब अचानक ईमानदारी का ज्वर फैल रहा है। इस ढोंग की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी ने की थी। आडवाणी लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे उस कारण ही भाजपा का राम बोलो भाई राम हो गया उसके बाद आडवाणी ने खुद हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर लोकसभा में विपक्ष का नेता पद नहीं स्वीकारेंगे ऐसा तिकडम रचाया था। हालांकि, यह तिकडम ज्यादा नहीं चल पाया और भाजपा के नेताओं द्वारा मनाने से आडवाणी मान गए और गुपचुप लोकसभा में विपक्ष पद पर बैठ गये। आडवाणी का यह ढोंग खत्म होने के बाद यशवन्त सिन्हा की बारी आई। यशवन्त सिन्हा भाजपा उपाध्यक्ष थे और उन्होंने भी आडवाणी की तरह भाजपा के हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी के नाम से इस्तीफा धर दिया। हालांकि, आडवाणी की तरह यशवन्त सिन्हा को मनाने के लिए कोई आगे नहीं आया और उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। जख्मी सिन्हा ने उसके बाद नया तिकडम खेला और उनकी तरह भाजपा के दूसरे नेतागण भी भाजपा के हार के लिए उतने ही जिम्मेदार है और उन्हें भी नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने के लिए आगे आना चाहिए ऐसा रिकार्ड बजाने की शुरुआत की है। सिन्हा के इस तिकडम का भाजपा के दूसरे नेतागण पर कोई असर तो नहीं हुआ लेकिन भाजपा में जिनके सामने सबसे ज्यादा टकराव है ऐसे यशवन्त सिन्हा ने भी अरुण जेटली को निशाना बना अपना रेकर्ड बजाया और अरुण जेटली का इस्तीफा आ गया है। ऐसा नहीं कि जेटली को यशवन्त सिन्हा की कही बात का बुरा लगा हो और उन्होंने इस्तीफा धर दिया हो क्योंकि जेटली ने एकाद हफ्ते पहले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इस्तीफा दे दिया था और लंदन यात्रा के लिए रवाना हुए थे। राजनाथ ने अभी तक यह इस्तीफा दबा रखा लेकिन जेटली के सामने टकराव बढा उसके बाद उसे ठंडा करने के लिए उन्होंने इस्तीफे का स्वीकार किया है ऐसी घोषणा कर दी। अरुण जेटली ने भी आडवाणी और यशवन्त सिन्हा की तरह इस्तीफा देने का ढोंग ही रचाया है लेकिन उनका तरीका अलग है। आडवाणी ने और सिन्हा ने चुनाव परिणामो में भाजपा की हार हुई उस मामले इस्तीफा दिया लेकिन जेटली उस बहाने से ढोंग नहीं कर सकते है क्योंकि अगर ऐसा करने जाते तो यशवन्त सिन्हा से लेकर जसवन्त सिंह तक के सभी विरोधी मैदान में आ जाते और वे लोग सही थे ऐसा डींग हाकते इसलिए जेटली ने नया खेल खेला है। उन्होंने ऐसी घोषणा की है कि, वे एक व्यक्ति एक पद के सिध्धांत में मानते है इसलिए इस्तीफा दिया है। जेटली भाजपा के महासचिव के अलावा राज्यसभा में भाजपा के नेता पद पर है और भाजपा में अभी जो धमासान चल रहा है उसके मूल में हकीकत में तो जेटली को दिया गया राज्यसभा का नेता पद है लेकिन जेटली ने वह पद नहीं छोडा।
लोकसभा चुनाव में जेटली भाजपा के मुख्य रणनीतिकार रहे और उन्होंने ना जाने कैसी रणनीति बनाई कि भाजपा ही गर्क में चला गया। भाजपा के पराजय में वैसे तो आडवाणी का योगदान सबसे बडा है लेकिन उन्हें ऐसा कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। इसलिए जो कमजोर उसी पर अपना निशाना बना सभी ने जेटली को लपेटे में ले लिया। यह धमासान जारी था वही जशवंत सिंह लोकसभा में चुने गये है इसलिए राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली पडा है और उस पद के लिए दूसरा कोई नहीं था इसलिए जेटली के सिर पर कलश गिरा और उसी में से नया झमेला शुरु हो गया। भाजपा की कोर कमिटी की बैठक में जशवंत सिंह इस मामले तलवार लेकर कूद पडे और उन्होंने जेटली को लपेटे में ले लिया। भाजपा को हराने वाले लोगों को पद देकर नवाजा जाता है ऐसा कह उन्होंने आलोचना की और जेटली से जो जलते है उन सभी ने उनकी हां में हां मिलाई।
यूं तो जशवंत सिंह और यशवन्त सिन्हा यह दोनो जेटली को राज्यसभा के नेता पद पर बैठाने के सामने विरोध जताये यह बात कुछ हजम नहीं होती है। जशवंत सिंह भूतकाल में इसी तरह पद भोग चुके है। १९९९ में लोकसभा चुनाव में जशवंत सिंह खुद हार गये थे और उसके बावजूद पिछले दरवाजे से राज्यसभा में घुस कर वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने थे। लोकसभा में हारने के बावजूद वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी बने थे और उस समय उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। यशवन्त सिन्हा खुद २००४ में लोकसभा के चुनाव में हार गये थे और उसके बाद भी भाजपा के उपप्रमुख पद से चिटके रहे थे। उस समय उन्हें नैतिकता क्यों याद नहीं आई? जेटली ने अभी जो किया है वह जशवंत सिंह और यशवंत सिंहा पहले ही करके बैठे है। उन्हें ऐसा कि लोगों को यह सब कहां याद रहता है। इसलिए उन्होंने जेटली को लपेटे में लिया और इसमें दूसरे भी जुड गये। हालांकि, जेटली जशवंत सिंह और यशवंत सिन्हा से हार माने ऐसे नहीं है। इन दोनों के इस नैतिकता के तिकडम के सामने उन्होंने एक व्यक्ति और एक पद का नाटक कर दिया। इसके जरिए जेटली ने एक तीर से दो शिकार किए है। एक तो राज्यसभा के विपक्ष के नेता का मलाईदार पद अपने पास रखा है और दूसरा भाजपा के जलते घर को राम राम कर जिम्मेदारी से मुक्त हो गये है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद कैबिनेट मंत्री जैसा माना जाता है जबकि भाजपा के महासचिव पद में अभी कुछ कमाने जैसा नहीं है। उल्टा यश के बजाय जूते पड रहे है। ऐसी स्थिति में जेटली ने अपनी अक्लमंदी दिखाई है।
हालांकि, जेटली हो या जशवंत सिंह, आडवाणी या यशवंत सिन्हा सभी नाटक ही कर रहे है और सत्ता छोडने को तैयार नहीं है। भाजपा के नेताओं को इस मामले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह से सीखना चाहिए। २००३ में म.प्र. विधानसभा चुनाव के समय दिग्विजय मुख्यमंत्री थे और उस समय उन्होंने ऐसी घोषणा की थी कि, अगर वे इस चुनाव में कांग्रेस को जीत नहीं दिलवा सके तो १० साल तक कोई सरकारी पद नहीं स्वीकारेंगे और दिग्विजय ने अपना कहा कर दिखाया अपना दिया वचन निभाया। इस बार लोकसभा में कांग्रेस ने उ.प्र. में जो जोरदार प्रदर्शन किया उसमें दिग्विजय का योगदान सबसे बडा है और उसके कारण उनके लिए केन्द्र में मंत्री पद हासिल करने का अच्छा मौका था। उन्हें मंत्री पद का ऑफर भी हुआ और इसके बाद भी दिग्विजय ने उसे नहीं स्वीकारा और अपने वादे से चिपके रहे। खुद पार्टी को मजबूत बनाने के लिए काम करेंगे ऐसी घोषणा की। भाजपा के नेताओं को दिग्विजय से प्रेरणा लेनी चाहिए।
जय हिंद

मंगलवार, 9 जून 2009

पाटिल और विजयन के बीचबचाव में राजनीतिक पार्टियां

हमारे देश में कुछेक राजनेता खुद को कानून से ऊपर मानते है और वे ऐसा समझते है कि वे कुछ भी करे लेकिन उनके सामने कोई ऊंगली भी नहीं उठा सकता। यह लोग इस देश के कायदे-कानून को सन्मान देना सीख ही नहीं पाये। देश की नैतिकता और मूल्यों की रक्षा की जिम्मेदारी सामान्य जनता से ज्यादा उनकी होती है लेकिन राजनीतिज्ञ इससे उल्टा ही व्यवहार करते है। ऐसी ही गिरी हुई मानसिकता का ताजा सुबूत है एनसीपी और सीपीएम जैसे दो अग्र राजनीतिक पार्टियां। इन पार्टियों ने उनके दो नेताओं की गंभीर प्रकार के आरोपों में शामिलगिरी के सामने हुए केसों के बारे में दी प्रतिक्रियाएं है।
शरद पवार की एनसीपी के सांसद पद्मसिंह पाटिल एक कांग्रेसी नेता की हत्या के केस में फंसे हुए है और सीपीएम के नेता पिनारायी विजयन अपने पद का दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार करने के केस में शामिल है। ऐसी स्थिति में एनसीपी और सीपीएम दोनों दलों को इन नेताओं को पार्टी से बेदखल करना चाहिए इसके बदले दोनों पार्टी के नेता उन्हें बचाने में लगे हुए है। अब हद तो इस बात की हो गई कि दोनों ऐसा ही मानते है कि उनके नेतागण दूध के धुले हुए है। खुद के नेताओं ने गलत किया है ऐसा स्वीकारने की उनकी अपेक्षा पहले से ही नहीं है लेकिन कम से कम इस देश का न्यायतंत्र उनका न्याय करे तब तक तो सब्र करना चाहिए ना। लेकिन वे इसके लिए भी तैयार नहीं है और दोनों के इमेज एकदम साफ है ऐसा सर्टिफिकेट अभी से देने लगे है।
२००६ में नई मुंबई के कालाम्बोली में पवनराज ने निम्बालकर नामक कांग्रेसी नेता की हत्या की थी। इस हत्या के मामले बहुत हो-हा मची थी उसके बाद इस हत्या की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। सीबीआई ने इस केस की जांच की और जिसने हत्या की उसे ढूंढ निकाला। इस हत्यारे ने कुबूला है कि शरद पवार की एनसीपी के सांसद पद्मसिंह पाटिल ने उसे कांग्रेसी नेता निम्बालकर की कथित तौर पर हत्या की सुपारी ३० लाख में दी थी। इस कुबूलनामे के आधार पर सीबीआई ने पाटिल को गिरफ्तार किया है। इस पूरे मामले में सबसे शर्मनाक बात यह है कि, पद्मसिंह पाटिल और निम्बालकर दोनों चचेरे भाई थे। पद्मसिंह के साथ निम्बालकर को किस मामले अनबन हुई पता नहीं लेकिन पाटिल ने निम्बालकर का काम तमाम करवा दिया ऐसा सीबीआई का कहना है लेकिन शरद पवार या एनसीपी को इससे कोई फर्क नहीं पडता। एनसीपी ने इस पूरे मामले ऐसा कह अपना हाथ उठा लिया है कि यह मामला पद्मसिंह पाटिल का निजी मामला है और इस मामले अदालत पद्मसिंह को सजा सुनायेगी तो पार्टी उन्हें निकाल देगी लेकिन तब तक उन्हें निकालने का कोई सवाल ही नहीं है। एनसीपी का जो दूसरा बयान है वह एकदम बकवास ही है। एनसीपी के कहने के मुताबिक पद्मसिंह पाटिल के मामले पार्टी ने वकीलों के साथ चर्चा की है और वकीलों का ऐसा कहना है कि पाटिल के बचने के पूरे चान्स है क्योंकि यह पूरा केस निम्बालकर की हत्या करनेवाले सुपारीबाज के बयान पर टिका हुआ है। मतलब साफ है कि यह दूसरा आरोपी मुकर जाये और अपना बयान बदल दे तो पाटिल बरी हो जाए। फिलहाल एनसीपी यही उम्मीद पाले बैठी है और ऐसा होने की संभावना ज्यादा है। महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस की सरकार है। एनसीपी के जयंत पाटिल गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री है और खुद पद्मसिंह पाटिल का बेटा राणा जगजित सिंह पाटिल महाराष्ट्र में मंत्री है। यही नहीं केस सीबीआई के हाथ में है। ऐसी स्थिति में एक आरोपी मुकर जाये ऐसा प्लान बनाना बहुत आसान है। पद्मसिंह पाटिल दोषी है या नहीं यह तय करने का काम अदालत का है लेकिन जिसके सिर पर हत्या का आरोप है उसे अपनी पार्टी में रखना है या नहीं यह तय करना एनसीपी का काम है और शर्मनाक बात तो यह है कि, एनसीपी नैतिकता को बरकरार रखने में असफल रही है। कोई भी व्यक्ति खून करे या करवाए तब अधिकतर वह निजी वजह या निजी फायदे के लिए ही होता है। वह थोडे ही दूसरों के लिए खून करवायेगा। एक हत्या की घटना को निजी मामले में खपाकर एनसीपी के नेताओं ने बेशर्मी की तमाम हदें पार कर ली है।
एनसीपी जैसी बेशर्मी सीपीएम के नेतागण दिखा रहे है। सीपीएम के नेता पिनारायी विजयन १९९७ में केरल सरकार में बिजली मंत्री थे और उस समय उन्होंने ३०० करोड का लवलिन कौभांड किया था। इस कौभांड में उन्होंने केरल के दो पावर प्लान्ट के रीनोवेशन का कॉन्ट्राक्ट केनेडा की कंपनी एसएनसी लवलिन को दिया था। वास्तव में ऐसे कोई रीनोवेशन की जरुरत ही नहीं थी। इस मामले उस बार भी जोरदार हो-हल्ला मचा था और विजयन के सामने उनके ही पार्टी के नेताओं ने गंभीर आक्षेप किए थे। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है इसलिए यह मामला फिर से बाहर आया है और सीबीआई ने विजयन को शिकंजे में ले लिया है। विजयन ने सार्वजनिक सेवक के रुप में यह कौभांड किया था इसलिए उनके सामने केस दर्ज करना हो तो केरल के राज्यपाल की इजाजत लेनी पडती है। केरल के राज्यपाल पद पर अभी महाराष्ट्र के नेता रामकृष्णन गवई है और वे कांग्रेस के वफादार है। सीबीआई ने विजयन के सामने जांच की मंजूरी मांगी कि तुरंत ही उन्होंने दे दी। सीबीआई ने भी मंजूरी मिलते ही केस दाखिल करने की कार्यवाही निपटा ली। हालांकि, सीबीआई की इस कार्यशीलता से सीपीएम को मिर्ची लगी है और उसने यह पूरा केस राजनीतिक है ऐसी घोषणा कर दी है। सीपीएम के कहने के मुताबिक राज्यपाल ने केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इशारे विजयन को फंसाने के लिए यह जाल बिछाया है। सीपीएम के नेताओं ने विजयन के मामले आखिर तक लड लेने की तैयारी शुरु की है।
सीपीएम अभी जो नाटक कर रही है उसे देख आपको क्या लगता है? विजयन ने सरकारी तिजोरी को ३०० करोड का चूना लगाया है यह मामला सीपीएम के नेताओं ने ही उठाया था और उसी कारण से तो विजयन को केरल सरकार में नहीं लिया गया और अब जब सीबीआई यह बात कह रही है तब सीपीएम को पूरा मामला राजनीतिक लग रहा है। अब देखना यह है कि न्यायतंत्र क्या फैसला लेती है।
जय हिंद

भारतीय राजनीति में महिलाएं

हमारे देश में महिलाओं की आबादी लगभग पुरुष के बराबर ही है। हमारी पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था और लडकों को लडकियों से ज्यादा तवज्जो देने की मानसिकता की वजह से पुरुषों की आबादी थोडी ज्यादा है लेकिन इतनी भी ज्यादा नहीं कि वे महिलाओं पर अपना प्रभुत्व जमा सके और फिर भी देश की आजादी के ६० साल में पहलीबार एक महिला लोकसभा अध्यक्ष पद पर बैठी। देश की आजादी से लेकर अभी तक १५ लोकसभाओं की रचना हुई और २० सरकारें आई और गई और उसके बाद भी किसी पार्टी को किसी महिला को स्पीकर पद पर बिठाने के बारे में सुझा ही नहीं। आखिर क्यों? क्या हमारे देश में स्पीकर पद पर बैठ सके ऐसी महिलाओं की कमी है? क्या महिलाएं इस पद के योग्य नहीं? वास्तव में इस देश के राजनीतिज्ञ यानि कि पुरुष राजनीतिज्ञों की महिलाओं को सत्ता में हिस्सेदारी देने की नियत ही नहीं है। हालांकि इसमें पुरुष और महिलाएं जैसा कोई भेद नहीं लेकिन इस देश के राजनीतिज्ञ तो खुद के सिवा दूसरे किसी को सत्ता मिले ऐसा चाहते ही नहीं है। लेकिन कुछेक शेर के आगे सवाशेर भी निकलते है और अपने दम पर जगह बना ही लेते है। लेकिन महिलाएं इस मामले कम बलशाली है। इंदिरा गांधी जैसी महिलाएं इस देश में बहुत कम पैदा हुई है। हमारे देश के पुरुष राजनीतिज्ञों ने महिलाओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाया है और महिलाओं को एक ओर रख एक तरफा सत्ता हासिल की है। मैं सिर्फ लोकसभा के स्पीकर पद की बात नहीं कर रही हूं वरन इस देश में संविधान के मुताबिक महत्वपूर्ण पदों पर बैठी महिलाओं की लिस्ट पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस देश में महिलाओं का राजनीति में क्या स्थान है।
जवाहर लाल इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे और मनमोहन सिंह बीसवें प्रधानमंत्री। इन दोनों के समय काल में इस देश में सिर्फ एक ही महिला प्रधानमंत्री आई। इंदिरा गांधी इस देश की प्रधानमंत्री बनी इसके लिए सबसे बडा कारण वह नेहरु की बेटी थी और इंदिरा गांधी इस देश के प्रधानमंत्री पद पर टिक गई इसका कारण था कि उनमें किसी से भी टक्कर लेने की जबरदस्त क्षमता थी। इंदिरा गांधी के लिए भी प्रधानमंत्री पद का सफर आसान नहीं था। लालबहादुर शास्त्री के अवसान के बाद मोरारजी देसाई किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और कांग्रेस के गद्दारों का उन्हें समर्थन था। इसके बावजूद इंदिरा गांधी गद्दी पर बैठी क्योंकि कांग्रेस में कामराज सहित के नेताओं का मानना था कि मोरारजी देसाई से ज्यादा इंदिरा गांधी इस गद्दी पर बैठे यह बेहतर रहेगा, क्योंकि इंदिरा उनके कहने में रहेंगी और वे जैसा कहेंगे वैसा कहेगी जबकि मोरारजी अपनी मनमानी ही करेंगे। कांग्रेस के नेताओं ने बेकसीट ड्राइविंग के मोह में जिसे गुंगी गुडिया मानते थे उस इंदिरा गांधी को समर्थन दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठा दिया। यह बात अलग है कि इंदिरा ने कांग्रेस के उन्हीं नेताओं की हालत बिगाड दी थी और खुद गुंगी गुडिया नहीं है यह साबित कर दिखाया था। कांग्रेस के दिग्गज राजनीतिज्ञ इंदिरा गांधी को समझने में चुक गये और उस वजह से देश को एकमात्र महिला प्रधानमंत्री मिली। इंदिरा गांधी शायद अपने बलबूते प्रधानमंत्री बन सकती थी लेकिन उन्हें जो पहला मौका मिला वह किस्मत के जोर पर ही मिला था।
प्रधानमंत्री पद इस देश का सबसे शक्तिशाली पद है तो राष्ट्रपति पद संविधान के रुप से सर्वोच्च पद है और इस पद पर बैठनेवाली एकमात्र वर्तमान महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल है। उप प्रधानमंत्री पद पर इस देश में कोई महिला नहीं आई और देश के ६० साल के इतिहास में केन्द्र में प्रधान पद हासिल करनेवाली महिलाओं की संख्या इसबार १०० के पार पहुंची है। इसबार केन्द्र के मंत्रीमंडल में ९ महिलाएं है और मीराकुमार ने इस्तीफा दिया उसके बाद तो ८ ही रह गई है। इन आंकडों के सामने पुरुष मंत्रियों की संख्या ७० है। यानि कि महिलाओं से १० गुना ज्यादा। देश की आजादी से लेकर अब तक जितने भी मंत्रीमंडल की रचना हुई उसमें वित्त, गृह, संरक्षण इन तीन महत्वपूर्ण पदों पर अभी तक कोई महिला नहीं बैठी।
केन्द्र की बात छोडो लेकिन राज्यों की भी यही हालत है। देश के २८ राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या गिनकर १३ है। सुचेता कृपलानी (उ.प्र) इस देश की प्रथम मुख्यमंत्री थी और अभी शीला दीक्षित (दिल्ली) तथा मायावती (उ.प्र) यह दो महिलाएं मुख्यमंत्री है। इन तीन महिलाओं के बीच नंदिनी सत्पथी (उडीसा), शशीकला काडोकर (गोआ), सैयदा अनवर तैमुर (आसाम), जानकी रामचंद्रन (तमिलनाडु), जयललिथा (तमिलनाडु), राजिन्दर कौर भट्टल (पंजाब), राबडी देवी (बिहार), सुषमा स्वराज (दिल्ली), उमा भारती (म.प्र) और वसुंधरा राजे सिंधिया (राजस्थान) यह दस महिलाएं मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाई है। इन १३ महिलाओं में से भी जानकी, जयललिथा, राबडी देवी, मायावती, वसुंधरा आदि तो ऐसी महिलाएं है जो वंशपरंपरागत राजनीति की देन है या किसी नेता के साथ अति निकटता के कारण मुख्यमंत्री पद उन्हें मिला है।
वर्तमान लोकसभा में महिलाओं की संख्या ५९ है और देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि लोकसभा में महिलाओं की संख्या १० प्रतिशत ज्यादा हो और पहली बार महिलाओं की संख्या ५० का आंकडा पार किया है। हालांकि इन ५९ महिलाओं में से भी ३५ महिलाएं तो ऐसी है कि जो इसलिए राजनीति में है क्योंकि उनका खानदान राजनीति में है और वे उनके वारिस बनी है। राजनीति के साथ कोई संबंध ना हो और बावजूद इसके चुनी गई हो ऐसी महिलाएं है अन्नु टंडन और सुषमा स्वराज।
अब सवाल है कि हमारे देश में महिलाओं की संख्या ५० प्रतिशत की है और फिर भी महिलाएं राजनीति में अपनी जगह क्यों नहीं बना पाती? हम ऐसी बातें करते है या सुनते है कि महिलाएं पुरुष जितनी सक्षम हुई है लेकिन राजनीति में आपको कही दिख रहा हो तो मुझे बताइयेगा। सोनिया गांधी की मेहरबानी से इस देश को प्रथम महिला राष्ट्रपति मिली और प्रथम महिला स्पीकर मिली। बाकी अब तक किसी राजनीतिक दल ने इस बारे में सोचा तक नहीं। यह स्थिति क्यों है? क्योंकि महिलाएं पुरुष की परछाई से बाहर आने को तैयार नहीं है। खास तो इसलिए कि ऐसी छाप है कि इस देश की राजनीति गंदकी से लबालब है जिसके चलते महिलाएं इसमें आने को तैयार नहीं होती। राजनीति में जो महिलाएं आती है उनमें से अधिकांश महिलाएं ऐसी होती है जो किसी न किसी राजनीतिज्ञ का हाथ थामकर अपनी जगह बनाने का प्रयास करती है और इसके बदले में जो कीमत चुकानी पडे उसे चुकाने की तैयारी रखती है।
हमारे देश में महिलाओं को सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी मिले इसके लिए संसद और विधानसभा में ३३ प्रतिशत आरक्षण की ऐसी सब बाते होती है लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पडने वाला। फर्क लाना है तो सबसे पहले राजनीति के इस माहौल को बदलना पडेगा।
जय हिंद

मंगलवार, 2 जून 2009

नई लोकसभा में महिला स्पीकर !


नई लोकसभा का पहला सत्र आरंभ हो चुका है और यह लोकसभा मीराकुमार को अध्यक्ष पद पर बिठाकर एक नया इतिहास जरूर बनायेगी। जबसे लोकसभा चुनाव नतीजे आये है तब से लोकसभा के अध्यक्ष पद पर कौन बैठेगा इसकी अटकलें चल रही थी। जिस तरह मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के अधिकांश दिग्गजों को अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया उसके कारण अध्यक्ष पद पर कौन बैठेगा इस मामले जोरदार सस्पेन्स बना हुआ था। कांग्रेस ने एकाद हफ्ते पहले इस सस्पेन्स का अंत करते हुए किशोर मोहन देव स्पीकर पद पर बैठेंगे ऐसा संकेत दे दिया था। हालांकि, इसके बाद अचानक क्या हुआ कि सोनिया गांधी ने देव के नाम पर चोकडी लगा ऐसी घोषणा की कि पंद्रहवी लोकसभा के स्पीकर पद पर किसी महिला को बिठाया जायेगा। किसी ने ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी। फिर से अटकलों का बाजार तेज हुआ और अनेक नाम आये। इन नामों में राजस्थान के गिरजा व्यास का नाम आगे था और साथ में मीराकुमार का नाम भी आ रहा था। हालांकि गिरजा का नाम आगे था उसके दो कारण थे। पहला कारण यह कि गिरजा व्यास ने मनमोहन सिंह की पहली टर्म में राष्ट्रीय महिला आयोग की चेरपर्सन के रूप में अच्छी कामगीरी की थी और दूसरा कारण यह कि मीराकुमार कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले चुकी थी। हालांकि, सोनिया गांधी ने फिर से सभी की धारणा को गलत साबित कर मीराकुमार के नाम पर पसंदगी की मोहर मार सबको अचंभे में डाल दिया।
तो आईये जानते है मीराकुमार के बारे में... 31 मार्च 1945 के दिन बिहार के पटना में पैदा हुई मीराकुमार दिग्गज दलित नेता जगजीवनराम की बेटी है। पिता जगजीवनराम और माता इन्द्राणीदेवी दोनों स्वातंत्र्यसेनानी थे। मीराकुमार की शादी मंजुलकुमार के साथ हुई है और उनकी तीन संतानें है। मंजुलकुमार सुप्रीमकोर्ट के वकील है। अंग्रेजी में मास्टर्स डिग्रीधारी मीराकुमार ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण की है और 1973 में वे भारत में संचालन में सबसे उच्च मानी जाती इन्डियन फोरेन सर्विस (आइएफएस) में जुडी थी। मीराकुमार ने आइएफएस ऑफिसर के तौर पर स्पेन, ब्रिटन और मोरेशियस में काम किया था। मीराकुमार राजीव गांधी के आग्रह से 1985 में सरकारी नौकरी छोड राजनीति में जुडी थी और 1985 में ही उ.प्र की बिजनौर बैठक पर से चुनाव लडी थी। उनके सामने मायावती और रामविलास पासवान जैसे दो धुरंधर नेता मैदान में थे और मीराकुमार दोनों को पछाडकर चुनाव जीत गई थी। मीराकुमार उसके बाद दो बार दिल्ली के कारोलबाग बैठक पर से चुनी गई थी लेकिन 1999 में हार गई थी। उसके बाद उन्होंने अपनी बैठक बदलकर 2004 में पिता जगजीवनराम की परंपरागत बैठक ससाराम पर से चुनाव लडी और जीत गई। इसबार बिहार में से कांग्रेस ने मात्र दो बैठके जीती है और उसमें से एक मीराकुमार की है। 2004 में मीराकुमार का समावेश मनमोहनसिंह सरकार में किया गया था। मीराकुमार ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण रखने का अभियान चलाया था। मीराकुमार कॉलेज के जमाने में राइफल शूटिंग में चैम्पियन थी और उन्होंने नेशनल लेवल पर ढेर सारे मेडल भी जीते है। उसी तरह मीराकुमार कवियत्री के तौर पर भी जानी मानी है।
अभी जिस तरह की बाते हो रही है उसे देख मीराकुमार तीन जून को लोकसभा के अध्यक्ष पद का शपथ लेगी और उसके साथ ही एक नया इतिहास बनेगा। मीराकुमार इस देश की प्रथम महिला अध्यक्ष के साथ प्रथम दलित अध्यक्ष भी होंगी। जिस देश में 50 प्रतिशत जनसंख्या महिलाओं की हो और बावजूद इसके अभी तक देश के राष्ट्रपति पद पर एक ही महिला बैठी हो और जिस देश में प्रधानमंत्री पद पर सिर्फ एक महिला आई हो उस देश में लोकसभा के स्पीकर पद पर एक महिला बैठे यह घटना सचमुच बहुत एहमियत रखती है।
इस देश में महिलाओं की समानता की बाते सभी करते है लेकिन यह सब सिर्फ कोरी बाते होती है। कोई राजनीतिक दल इसका पालन नहीं करता है। इस देश में कितनी महिलाओं को उच्च पद मिला है इसकी लिस्ट पर नजर डालें तो पता चलेगा कि एक महिला का स्पीकर पद पर बैठना कितनी बडी खबर है।
राष्ट्रपति पद और प्रधानमंत्री पद की बात छोडे तो भी केन्द्र में मंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या इन 60 सालों में सिर्फ 100 का आंकडा पार कर सकी है और इन 60 सालों में देश के राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या गिनकर 12 है। इन किस्मतवाली महिलाओं में भी अधिकांश तो ऐसी है जिन्हें उनके खानदान के कारण यह पद मिला हो। बाकी अपने दम पर जगह बनानेवाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है। ऐसी स्थिति में मीराकुमार स्पीकर पद पर बैठे यह घटना इस देश के लिए इतिहास सर्जक ही है। मीराकुमार दलित है। इस देश में महिलाओं की जो हालत है वही हालत दलितों की है। आज जब दलित वोटबैंक मजबूत बन गई है इसलिए सभी दलों को उन्हें मंत्रीमंडल में शामिल करना पडता ही है लेकिन उन्हें भी बडे पद देने के बारे में कोई नहीं सोचता। कांग्रेस ने यह पहल कर बहुत अच्छा काम किया है।
मीराकुमार उनके पिता और भाई से विरोधी साफ इमेज रखती है। वह खुद आइएफएस ऑफिसर थी और इस तरह उनकी काबिलियत के बारे में कोई सवाल ही खडा नहीं होता।
जय हिंद