बुधवार, 29 जुलाई 2009

काश्मीर सेक्स कांड और नैतिकता का हाई वोल्टेज ड्रामा

काश्मीर सेक्स कांड : क्या था मामला
काश्मीर में २००६ के अप्रैल में एक सेक्स टेप घुमा जिसमें १५ साल की लडकी एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ दिखाई गई थी। पुलिस ने इस सेक्स टेप की जांच शुरु की और इस लडकी को ढूंढ निकाला। यास्मिन नामक इस लडकी ने पुलिस के सामने फरियाद की और बाद में जो कबूला वह चौंकानेवाला था। यास्मिन के कहने के मुताबिक काश्मीर में उसके जैसी नाबालिग बच्चियों और लडकियों को फंसाकर उन्हें सेक्स ट्रेड में धकेलने का बहुत बडा नेटवर्क चलता था और उसमें असंख्य वरिष्ठ नौकरशाह और राजनेता शामिल थे। यास्मिन ने अपनी जानकारी के मुताबिक ४० जितनी नाबालिग बच्चियों और लडकियों को वरिष्ठ नौकरशाह और राजनेताओं की हवस के लिए इस्तेमाल की होने की जानकारी पुलिस को दी और यह भी बताया कि सबिना नामक एक महिला इस रेकेट की सूत्रधार है। पुलिस ने इस जानकारी के जरिये सबिना को गिरफ्तार किया। दौरान इस सेक्स रेकेट की जानकारी मीडिया में बाहर आई और उसके साथ ही लोगों में आक्रोश फूट निकला। लोगों ने सबिना का घर जला दिया और समग्र काश्मीर में धमाल शुरु हो गया। पुलिस इस केस में कदम उठाने के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं थी इसलिए लोगों का आक्रोश ज्यादा भडका और बहुत उहापोह के बाद आखिर इस केस की जांच सीबीआई को सौंपी गई। सबिना तथा अन्य पीडित लडकियों के पास से मिली जानकारी के आधार पर इस केस में जून २००६ में पहला आरोपपत्र दाखिल किया गया और उसमें एडिशनल एडवोकेट जनरल से लेकर बीएसएफ के प्रमुख सहित के लोगों के नाम आरोपी के रुप में थे। इसके अलावा मुफ्ती मुहम्म्द सइद के मंत्रीमंडल के दो मंत्री गुलाम अहमद मीर और रमन मट्टु एवं मुफ्ती के अपने प्रिन्सिपाल सेक्रटरी इकबाल खांडे इस केस में आरोपी है।
राजनेता हर मौके का फायदा उठाने में और प्रतिकूलता को अपनी अनुकूलता में तब्दील करने में बडे ही चतुर होते है और वह भी नैतिकता का नाटक कर। इस ड्रामेबाजी का ताजा उदाहरण है उमर अब्दुल्ला का जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री पद से दिया गया इस्तीफा। २००६ में पूरे काश्मीर में श्रीनगर सेक्स कांड ने सनसनी मचा दी थी। इस कांड में ५० जितने राजनेता शामिल है ऐसा आरोप उसी वक्त हुआ था लेकिन दो-चार को छोड किसी का नाम बाहर नहीं आया था। इस केस की जांच सीबीआई को सौंपी गई और सीबीआई क्या करती है यह हम अच्छी तरह से जानते है इसलिए जब तक ऊपर से हरी झंडी नहीं मिले तब तक किसी का नाम बाहर आये ऐसी उम्मीद भी नहीं थी इसलिए यह मामला ठंडा हो गया था। मंगलवार को उमर अब्दुल्ला के विपक्षी महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के नेता मुज्जफर बेग ने काश्मीर विधानसभा में २००६ के इस सेक्स रेकेट का जीन फिर से बोतल में से बाहर निकाला और घोषणा की कि, सीबीआई ने इस सेक्स कांड में शामिल जिन राजनेता और वरिष्ठ नौकरशाहों की सूची तैयार की है उसमें एक नाम उमर का भी है। बेग के दावे के मुताबिक सीबीआई ने यह केस जहां चल रहा है उस पंजाब और हरियाणा कोर्ट को दी अपराधियों की सूची में उमर का नंबर १०२ है। बेग ने तो उमर के पिता और केन्द्र के पर्यटन मंत्री फारुख अब्दुल्ला को भी लपेटे में ले लिया और घोषित किया कि फारुख ने भी इस सेक्स कांड में अपना मुंह काला किया था और अपराधियों की सूची में उनका नंबर ३८वां है।
बेग की इस बात को सुनकर उमर अचानक ही तैश में आ गये और उन्होंने घोषित किया कि, उन पर लगाये गये आरोप गलत है लेकिन सवाल नैतिकता का है और एक राज्य के मुख्यमंत्री पर ऐसा गंभीर आरोप लगाया जाये यह कैसे चलता इसलिए उन्होंने इस्तीफा दिया है और जब तक इस मामले में बेदाग साबित नहीं होंगे तब तक पद पर नहीं लौटेंगे। उमर ऐसी प्रतिक्रिया देंगे इसकी कल्पना ना ही पीडीपी ने की थी और ना ही उनकी पार्टी के लोगों ने। पार्टी के लोगों ने उमर को बहुत समझाया कि ऐसे आरोपों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना चाहिए लेकिन उमर ने इस निर्णय से पीछे हटने से मना कर दिया। विधानसभा के खत्म होने के बाद वे अपने पिता के साथ राज्यपाल से मिले और अपना इस्तीफा धर दिया। सीबीआई ने इसके बाद साफ किया कि उमर का नाम अपराधियों की सूची में नहीं है इसके बाद भी उमर ने इस्तीफे की बात को पकडे रखा। उमर ने इस तरह इस्तीफा धर दिया इसके कारण एक ओर सनसनी मची है वहीं दूसरी ओर उनके चमचे उमर की तारीफ के कसीदे पढने में लगे हुए है। उनके कहने के मुताबिक उमर ने खुद पर सिर्फ आरोप लगने मात्र से इस्तीफा देकर नैतिकता का एक श्रेष्ठ उदाहरण दिया है और दूसरे नेताओं को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। चलो, मानते है कि उमर ने जो किया उससे दूसरे नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए लेकिन उमर ने जो कुछ किया उसका नैतिकता से कोई वास्ता ही नहीं है। वास्तव में उमर ने जो कुछ किया वह एक नाटक से विशेष कुछ भी नहीं और यह नाटक उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया है।
उमर अभी चहुंओर से फंसे हुए है। शोपियान में दो काश्मीरी लडकियों पर सेना के जवानों ने दुष्कर्म किया और बाद में उनकी बेरहमी से हत्या कर उनकी लाश को फेंक दिया उसके कारण अभी काश्मीर आग की लपटों में लिपटा हुआ है और पीडीपी के महबूबा मुफ्ती ने इस मामले सोमवार को काश्मीर विधानसभा में हंगामा कर उसका लाभ लेने के लिए जो तिकडम किया उसके कारण उमर बौखलाए हुए है। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है उमर की पार्टी उसमें हिस्सेदार है इसलिए केन्द्र के खिलाफ कुछ बोल नहीं सकते और सेना पर दोष मढ नहीं सकते इसलिए उमर की हालत खराब थी। काश्मीर में इस प्रकार के अभियान सत्ताधीशो को भारी ही पडते है और महबूबा के इस शतरंज के पासों को किस तरह उलटाना इसका रास्ता उमर के पास नहीं था उसी समय यह सेक्स स्केन्डल का जीन बाहर आ गया। चतुर उमर ने इस जीन को पकड लिया और नैतिकता का नाटक खेला। अब वे गद्दी पर ही नहीं होंगे तो शोपियान में जो कुछ भी हुआ उसके लिए दोष लगने का सवाल ही नहीं उठता। बेग ने वास्तव में यह मामला उठाकर फंसे हुए उमर को बाहर निकाला है।
अगर उमर अब्दुल्ला ने वास्तव में नैतिकता की सुरक्षा के लिए यह इस्तीफा दिया हो तो उनके पिता फारुख को भी केन्द्रीय मंत्रीमंडल में से इस्तीफा देने को कहना चाहिए। बेग के दावे के मुताबिक उमर और फारुख दोनों के नाम अपराधियों की सूची में है तो फारुख को भी नैतिकता दिखाने के लिए इस्तीफा देना चाहिए कि नहीं? उमर नैतिकता को उच्च पैमाने पर स्थापित करना चाहते है तो उन्हें अपने खानदान में भी उसका पालन हो यह देखना चाहिए। चलिए देखते है कि, फारुक क्या करते है। उमर ने इस्तीफा देकर सचमुच नैतिकता दिखाई है या नाटक किया है उसे साबित करना अब फारुक के हाथ में है। नैतिकता की शुरुआत खुद के घर से होनी चाहिए।
जय हिंद

शनिवार, 25 जुलाई 2009

`सच का सामना' पर हंगामा

सबसे पहले `सच का सामना' कार्यक्रम के बारे में जानते है। ’सच का सामना’ अमरिका का गेम शो द मोमेन्ट ऑफ ट्रुथ पर आधारित है और इस शो का होस्ट मार्क वेलबर्ग है एवं अमरिका में यह शो फोकस नेटवर्क पर से प्रसारित होता है। हालांकि असल में यह शो अमरिका का नहीं है। इस शो की जडें कोलम्बिया में है और उसके सर्जक लाइटहार्टेड एन्टरटेनमेन्ट के मालिक अमरिकन टीवी निर्माता हावर्ड स्कुल्ज है। सबसे पहले यह शो कोलम्बिया में २००७ में पेश हुआ था और इसमें सबसे बडा इनाम १० करोड कोलम्बियन डॉलर था। अमरिका में यह शो जनवरी २००३ में प्रसारित हुआ था। अमरिका में इस कार्यक्रम की शुरुआत अमरिकन आइडल विजेता से हुई थी और उसे जबरदस्त पब्लिसिटी दी गई थी। इसका पहला शो २.३० करोड लोगों ने देखा था। इसके बाद दूसरे सभी देशों में इस शो की नकल शुरु हुई। अभी विश्व में ४६ देशों में इस कार्यक्रम की नकल होती है और टीवी पर से यह कार्यक्रम प्रसारित होते है। अमरिका में हाल में यह कार्यक्रम प्रसारित नहीं होता लेकिन अगस्त २००९ से उसके नये शो प्रसारित होंगे। अमरिका में इस कार्यक्रम में सबसे बडा इनाम पांच लाख अमरिकन डॉलर है। ’सच का सामना’ में अमरिकन फोर्मेट का ही अनुकरण किया गया है और उसमें भी स्पर्धक को ५० सवाल पूछे जाते है और उसमें से २१ सवाल पूछे जाते है। इन सवालों के जवाब सही है या गलत यह जानने के लिए पोलीग्राफ टेस्ट किया जाता है और पोलीग्राफ कहे कि स्पर्धक ने गलत जवाब दिया है तो स्पर्धक को बाहर निकाल दिया जाता है। ’सच का सामना’ के लिए अमरिकन पोलीग्राफ एक्सपर्ट हर्ब इरविन की मदद ली जाती है।
अब ’सच का सामना’ कार्यक्रम पर जो हंगामा मचा है उसकी बात करते है। हमारे देश में भारतीय संस्कृति के नाम से जो नाटक चलता है ऐसा नाटक दुनिया में कहीं नहीं चलता होगा। हमारे राजनेता, बुध्धिजीवी, समाज सेवक आदि के अपने-अपने चोके है, अलग-अलग जमात है और खुद के अनुकूल न हो ऐसा कुछ भी घटित होता है तब इस जमात में से कोई भी भारतीय संस्कृति का झंडा लेकर खडा हो जाता है और शोर मचाने लगता है। एक तो यह वर्ग बहुत बातूनी है और दूसरा कि इनके तमाशे के कारण इनका शोर समग्र देश तक पहुंच जाता है और बाद में इनकी हां में हां मिलानेवाले और मुंडी हिलाने वाले आ जाते है और शोर बढता ही जाता है। शोर बढे तब सरकार जागती है और नोटिसे जारी करने जैसी सभी कवायदें शुरु हो जाती है। इस खेल में जो सबसे ज्यादा शोर मचा सकता हो वह जीत जाता है और कुछेक समय के बाद भारतीय संस्कृति जहां थी वहीं आकर खडी हो जाती है और शोर मचानेवाले अपने घर जाकर चादर तानकर सो जाते है।
स्टार प्लस चैनल पर गत हप्ते से शुरु हुए ’सच का सामना’ नामक रियालिटी शो के मामले यह हंगामा शुरु हो गया है। गत हप्ते यह शो शुरु हुआ और उसमें पहले हप्ते ही जिस प्रकार के सवाल पूछे गए उसके कारण अचानक ही भारतीय संस्कृति के झंडाधारी जाग उठे और उन्हें चिंता होने लगी कि इस प्रकार के सवाल अगर टीवी कार्यक्रम में पूछे गये तो भारतीय संस्कृति मिट्टी में मिल जायेगी। उन्होंने इस शो के सामने शोर मचाना शुरु किया और संसद में भी इस मामले हंगामा मचा दिया। संसद में हंगामा होने के कारण सरकार को भी लगा कि कुछ करना पडेगा इसलिए वह भी जाग उठी और इस शो को प्रसारित करनेवाली टीवी चैनल स्टार प्लस को नोटिस जारी कर दी। केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जारी की नोटिस में सवाल पूछा गया है कि, यह कार्यक्रम भद्र व्यवहार और शालीनता का भंग करती है, उसे देख क्यों बंद नहीं किया गया। स्टार प्लस को नोटिस का जवाब देने के लिए २७ जुलाई तक का समय दिया गया था लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘सच का सामना’ की सुनवाई को स्थगित कर दिया है। न्यायाधीश संजीव खन्ना की एकल पीठ ने मामले को मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की खंडपीठ को सौंप दिया है। अब इस मामले पर सुनवाई २९ जुलाई को होगी। चैनल क्या खुलासा करती है यह पता नहीं लेकिन अभी तो यह मामला एकदम गरम हो गया है। ’सच का सामना’ नामक यह कार्यक्रम अमरिका के द मोमेन्ट ऑफ ट्रुथ नामक कार्यक्रम की हू-ब-हू नकल है और अमरिका में यह कार्यक्रम प्रसारित हुआ तब भी जोरदार हंगामा मचा था। वहां भी इस कार्यक्रम के कारण बहुतों की गृहस्थी छिन्न-भिन्न हो जायेगी ऐसी दलील होती थी और हमारे यहां भी वही दलीले हो रही है। अमरिका में वास्तव में कितने लोगों की गृहस्थी इस कार्यक्रम के कारण बिखरी यह पता नहीं लेकिन हमें इतना मालूम है कि, हमारे यहां इस शो के पहले स्पर्धक बने विनोद कांबली ने बहुत से जोरदार जवाब दिए उसके बाद भी उनका दाम्पत्य जीवन सही-सलामत है। खैर अब मूल बात पर आते है। यह कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और उसके कारण यह कार्यक्रम बंद कर देना चाहिए ऐसी जो दलीले हो रही है वह जायज है या नही? बिलकुल भी नहीं। जिस देश में ‘सत्यमेव जयते’ राष्ट्रीय सूत्र हो वहां ऐसी बात हो वह सचमुच तो हमारे दंभ का सुबूत है और हमारे यहां ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सिर्फ हमारी पसंद को तवज्जो देते है, दूसरे किसी की बात को नहीं स्वीकार पाते। हमारे यहां संस्कृति के नाम से जो नाटक होते है इसका कारण यह है कि हम मनोरंजन और वास्तविकता का भेद ही नहीं समझ पाते। पहली बात यह कि यह एक मनोरंजन का कार्यक्रम है और उसका संस्कृति के साथ कोई लेना-देना ही नहीं है। दूसरी बात यह कि इस कार्यक्रम में जिस प्रकार के सवाल पूछे जाते है वह एकदम निजी है और किसी को असमंजस में लाकर खडा कर दे ऐसे भी है लेकिन यह सवाल किसी से जबरदस्ती नहीं पूछे जाते। कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से अपनी निजी जिंदगी के पन्ने खोलने बैठ जाये तो उसमें दूसरे किसी को आपति उठाने की क्या जरुरत है? इस देश में सभी को इतनी स्वतंत्रता तो है ही। इन सवालों के सही जवाब देने से किसी एक व्यक्ति का घर टूटे या उसका दाम्पत्यजीवन छिन्न-भिन्न हो तो वह उस व्यक्ति का प्रश्न है। ऐसा भी हो सकता है कि स्पर्धक किसी सवाल का सही जवाब दे और पोलीग्राफ उसे गलत ठहराये उसके कारण स्पर्धक के जीवन-साथी के मन में शक हो लेकिन फिर से एक बार कहूंगी कि, यह उन दोनों का प्रश्न है और ऐसा जोखिम उठाना चाहिए या नहीं यह स्पर्धक ही तय कर सकता है। अगर उस व्यक्ति को ऐसा जोखिम उठाने में कोई दिक्कत ना हो और अपने जीवनसाथी पर भरोसा हो या खुद में कितना भरोसा है यह जानना हो तो उसके सामने ओरों को आपत्ति उठाने की कोई जरुरत ही नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह कार्यक्रम टीवी चैनल पर प्रसारित होता है और जिस तरह उसमें हिस्सा लेने वाले को अपनी बात करने की आजादी है उसी तरह ही आपके पास भी इस कार्यक्रम को देखना चाहिए या नहीं यह तय करने की स्वतंत्रता है। आपको पसंद ना हो तो टीवी बंद कर दीजिए, दूसरी चैनल देखिए या फिर चादर तान के सो जाइए इसमें संस्कृति को बीच में लाने की क्या जरुरत है। सत्य को स्वीकारना बहुत मुश्किल होता है।
जय हिंद

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

कांटिनेंटल एयरलाइन्स और डॉ. कलाम की तलाशी

भारत में राजनेता राई का पहाड बनाने में बडे ही चतुर होते है और शोर मचाने के लिए किसी भी मुद्दे को उछाल देते है। इस जमात को देशाभिमान या राष्ट्र के अपमान के साथ कोई वास्ता नहीं होता और सामान्य स्थितियों में देश की इज्जत का फालूदा बन जाये तो भी इनके पेट में ऐंठन तक नहीं आती लेकिन प्रसिध्धि मिले इसके लिए वे किसी भी मुद्दे को राष्ट्र के मान-अपमान के साथ जोडने में जरा सा भी हिचक महसूस नहीं करते। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम का नई दिल्ली के इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट पर एक अमरिका एयरलाइन्स यानि कि विमानी कंपनी द्वारा हुई जांच के मामले संसद में मचा बवाल इसका ताजा सुबूत है। हालांकि कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने माफी मांगी है।
बात अप्रैल महिने की है। डॉ. कलाम अमरिका विमान में नेवार्क जा रहे थे और नई दिल्ली के एयरपोर्ट पर अन्य यात्रियों की जिस तरह तलाशी ली जाती है उसी तरह डॉ. कलाम की भी तलाशी ली गई। अन्य यात्रियों की तरह डॉ. कलाम की भी शारीरिक जांच हुई और उनके जूते उतरवाकर जांचा गया, उनका मोबाइल फोन भी जांचा गया। डॉ. कलाम ने किसी भी तरह की आपत्ति या विरोध जताये बिना यह जांच होने दी और बाद में शांति से विमान में बैठकर नेवार्क चले गये। डॉ. कलाम के साथ सिक्युरिटी के लिए जो कमान्डो थे उन्होंने एयरलाइन्स के स्टाफ को समझाने का प्रयास किया कि डॉ. कलाम कौन है और उनकी तलाशी नहीं करनी चाहिए लेकिन कांटिनेंटल के स्टाफ ने रोकडा जवाब दे दिया कि महत्वपूर्ण हो या अतिमहत्वपूर्ण, तलाशी तो करनी ही पडेगी। कमान्डो यह सब कुछ होते देखते रहे, और कर भी क्या सकते थे?
यह मामला यही पर खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन कलाम की सिक्युरिटी के साथ जुडे लोगों ने इस मामले रिपोर्ट किया और उसी में से नया झमेला शुरु हुआ। यह पूरा मामला नागरिक उड्डयन मंत्रालय के पास पहुंचा और नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने प्रोटोकॉल के भंग के बदले कांटिनेंटल एयरलाइन्स को शो-कोज नोटिस भेजा। हालांकि अमरिकन कंपनी इस नोटिस को तवज्जो न देते हुए इसका जवाब देने तक की जहमत नहीं उठाई। हालांकि इसमें भी कुछ नया नहीं है और बात वहीं दब गई होती लेकिन यह पूरा मामला भाजपा के ध्यान में आया और उसमें से बवाल शुरु हुआ।
भाजपा के अरुण जेटली ने यह मामला राज्यसभा में उठाया और अमरिकन कंपनी ने कलाम का अपमान किया है ऐसा शोर मचा दिया। जेटली के साथ दूसरे भी जुड गये। वामपंथी तो वैसे भी अमरिका के नाम से चिडते है इसलिए यह लोग भी चालू गाडी में बैठ गए और उन्होंने बात को नया मोड दे कह दिया कि, ऐसा तो नहीं कि, कलाम मुस्लिम है इसलिए शायद उनकी खास तलाशी ली गई हो, इसकी भी जांच होनी चाहिए। इसके अलावा सपा के जनेश्वर मिश्रा ने पूरी बात को रंगभेद का रुप दिया और कह दिया कि गोरी चमडीवाले अमरिकन काली चमडीवाले सभी को शक की निगाह से देखते है और उनके साथ दुर्व्यवहार करते है उसका यह परिणाम है। सभी ने बहती गंगा में हाथ धो लिया इसलिए आखिर में नागरिक उड्डयन मंत्रालय के मंत्री प्रफुल पटेल को स्पष्ट करना पडा कि, अमरिकन कंपनी को जो नोटिस दी गई है उसका उन्होंने जवाब तक नहीं दिया और अब सरकार कांटिनेंटल एयरलाइन्स के सामने फोजदारी केस करने के बारे में सोच रही है क्योंकि उसने भारत के पूर्व राष्ट्रपति का अपमान किया है। प्रफुल पटेल के कहने के मुताबिक भारत में काम करनेवाली हरेक विमानन कंपनी को चोकस मार्गदर्शक रेखा दी जाती है और इस मार्गदर्शिका के मुताबिक उसे भारत के राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपतियों की सुरक्षा जांच नहीं करनी होती। कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने इस नियम का उल्लंघन किया है इसलिए उसके खिलाफ केस किया जायेगा ऐसा आश्वासन प्रफुल पटेल ने दिया है। कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने इस बयान के बाद अपनी उसी बात को दोहराया कि हमारे लिए सुरक्षा महत्वपूर्ण है और महत्वपूर्ण हो या अतिमहत्वपूर्ण, हमें जांच तो करनी पडेगी। यानि कि कंपनी ने जो किया उसे उसका जरा भी अफसोस नहीं।
प्रफुल पटेल के दावे के मुताबिक कांटिनेंटल एयरलाइन्स के सामने केस होता है या नहीं यह पता नहीं लेकिन कलाम के अपमान के नाम से जो शोर मचा है यही गलत है। अभी दुनियाभर में आतंकवाद का जाल जिस तरह फैला हुआ है उसे देखते सुरक्षा के मामले में किसी को भी जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए और ऐसी स्थिति में कांटिनेंटल एयरलाइन्स या अन्य कोई भी कंपनी सावधानी बरते इसमें गलत ही क्या है? डॉ. कलाम सन्मानीय व्यक्ति है और उनके साथ किसी भी प्रकार की बदतमीजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती लेकिन सुरक्षा के मद्देनजर होती जांच कोई बदतमीजी नहीं है। वास्तव में यह मुद्दा डॉ. कलाम या हम पर अविश्वास का है और हमें तो वास्तव में डॉ. कलाम के साथ ऐसा सलुक हुआ इसकी बात करने के बजाय ऐसा क्यों हुआ इस बारे में सोचना चाहिए। क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले ज्योर्ज फर्नान्डिज संरक्षण मंत्री थे तब उनके साथ अमरिका के एयरपोर्ट पर जांच हुई और प्रणब मुखर्जी विदेश मंत्री थे तब मोस्को के एयरपोर्ट पर उनके साथ भी यह हुआ।
डॉ. कलाम या ज्योर्ज या प्रणब हमारे लिए महत्वपूर्ण है और सन्मानीय है और उन पर किसी भी प्रकार का शक नहीं किया जा सकता यह भी स्वीकार ले तो भी क्या उनके आसपास के लोगों पर शक नहीं किया जा सकता इसकी कोई गेरंटी है? डॉ. कलाम की बात करे तो कोई कलाम के मोबाइल में या जूते में विस्फोटक ना रख दे इसकी कोई गेरंटी है? आज विस्फोटक बहुत ही छोटे चीप में तबदील हो गये है तब कलाम इस बात से अनजान हो और उनके आसपास की कोई व्यक्ति ऐसा कर दे ऐसा भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में कलाम या अन्य कोई भी वीआइपी की जांच हो इसमें कुछ भी गलत नहीं है और अमरिकन एयरलाइन्स इसका आग्रह रखे तो इसमें कलाम का अपमान नहीं बल्कि यात्रियों की सुरक्षा की चिंता है और कलाम ने जिस तरह सहयोग दिया उस तरह हरेक वीआइपी को इसमें सहयोग देना चाहिए। अमरिकन सुरक्षा के मामले में सतर्क है इसलिए तो बचकर जीते है। ओसामा बिन लादेन ने वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर को तहस नहस किया उसके बाद अमरिका पर एक भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ है और इसके मूल में उनकी यह सतर्कता है। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है यह बात उन्होंने बहुत ही सहजता से स्वीकार किया है उसका यह परिणाम है। हमारे देश में इस तरह जांच नहीं होती इसलिए यह हमारा प्रश्न है। हमारे देश में जैसा चलता है वैसा दूसरे देश में थोडे ही चलता होगा?
अब बात हम पर अविश्वास की। हम पर उन्हें भरोसा क्यों नहीं? क्योंकि हमारे देश में सुरक्षा के नाम से नाटक ही चलता है। आतंकवादी हमले इसका ही परिणाम है। इसलिए हम जो भुगत रहे है वह अमरिका या दूसरा कोई क्यों भुगते?
भाजपा ने यह मुद्दा उछाला है यही शर्मनाक है। ज्योर्ज फर्नान्डिज भाजपा की सरकार में ही विदेश मंत्री थे और अमरिका के एयरपोर्ट पर उनके तो कपडे उतरवाकर जांच की गई थी। उस समय भाजपा के नेतागण अपनी दूम छुपाकर बिलों में छिपे बैठे थे। क्या उस समय उन्हें उनका अपमान नहीं लगा? क्या सत्ता में हो तब अपमान की परिभाषा बदल जाती है?
जय हिंद

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

रीता की मायावाणी

देश में राजनीतिज्ञों का स्तर नीचे उतरता जा रहा है और उनकी वाणी एकदम ही निम्न कक्षा की और नुक्कडछाप हो गई है ऐसी आम धारणा है। उ.प्र. कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा ने उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती के बारे में जो टिप्पणीयां की उसके बाद यह बात एकदम सच लगती है।
सबसे पहले जानते है कौन है रीता बहुगुणा जोशी....?
रीता उ.प्र. के दिग्गज कायस्थ नेता माने जाते हेमवतीनंदन बहुगुणा की बेटी है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री रह चुके बहुगुणा का १९८४ के लोकसभा चुनाव में अलाहाबाद बैठक से अमिताभ बच्चन के सामने हारने के बाद राजनीतिक करियर खत्म हो गया था। रीता की शादी एडवोकेट पूरनचंद्र जोशी के साथ हुई है लेकिन बहुगुणा का राजनीतिक विरासत बरकरार रखने के लिए उन्होंने अपने नाम के साथ बहुगुणा सरनेम जारी रखा है। रीता हाल में उ.प्र. कांग्रेस की अध्यक्ष है। हालांकि उनका राजनीतिक करियर ज्यादा प्रभावशाली नहीं है और वे कभी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं जीती पाई। रीता अलाहाबाद की मेयर बनी यही उनकी श्रेष्ठ राजनीतिक सिध्धि है। रीता १९८४ में अलाहाबाद लोकसभा बैठक पर से भाजपा के मुरली मनोहर जोशी के सामने हार गई थी जबकि २००८ में विधानसभा के चुनाव में एकदम तीसरे स्थान पर आई थी। २००९ की अंतिम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें लखनौ बैठक से भाजपा के लालजी टंडन के सामने टिकट दी, हालांकि रीता बुरी तरह से हारी थी। रीता २००८ में सलमान खुरशीद के स्थान पर उ.प्र. कांग्रेस अध्यक्ष बनी। विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के खराब परफोर्मन्स के कारण उन्हें हटाया गया। रीता की खुशनसीबी से कांग्रेस ने इसबार लोकसभा चुनाव में जोरदार परफोर्मन्स किया इसलिए उनका प्रमुख पद बरकरार रह पाया।
उ.प्र. में अभी गाजियाबाद में एक लडकी पर हुए दुष्कर्म का मामला चल रहा है। दुष्कर्म दिल दहला देनेवाली घटना है और दुष्कर्म की शिकार महिला का तो समग्र अस्तित्व छिन्नभिन्न हो जाता है लेकिन हमारे राजनेताओं में यह समझने की क्षमता ही नहीं होती और वे लोग हरेक बाबत में अपनी राजनीतिक खिचडी किस तरह पकाया जाये उसकी फिराक में ही होते है। गाजियाबाद के इस दुष्कर्म कांड में भी ऐसा ही हुआ और कांग्रेस सहित के तमाम मायावती विरोधी दल इस घटना का राजनीतिक फायदा उठा लेने के लिए मैदान में आ गए। सामने मायावती ने भी यह मामला ज्यादा ना चले इस हेतु से पानी सिर से ऊपर हो जाने के बाद कवायद शुरु की। राजनेता ऐसा मानते है कि कोई भी अपराध होने के बाद अपराध का शिकार बननेवाले का मुंह नोटों से भर दिया जाये तो वह सब भूल जायेंगे। मायावती ने भी यही किया और उन्होंने जो लडकी दुष्कर्म का शिकार हुई थी उसके परिवार के सामने रु. ७५ हजार का टुकडा फेंक दिया। मायावती ने जो किया वह सचमुच गलत है। वास्तव में तो दुष्कर्म करनेवाले हैवानों के सामने ताबडतोब केस चलाकर उन्हें सजा करनी चाहिए लेकिन ऐसी हिम्मत बहुत कम राजनेता दिखा सकते है। मायावती भी वह हिम्मत नहीं दिखा सकी और उन्होंने वही किया जो दूसरे राजनेता करते है।
मायावती के इस निर्णय के सामने कांग्रेस प्रमुख रीता बहुगुणा जोशी ने आपत्ति जताई है और उन्होंने मायावती को आडे हाथ लिया। रीता ने दुष्कर्म का शिकार बनी लडकियों के परिवारों को मायावती ने कब-कब नोटों की गड्डियां दी इसका इतिहास पेश किया। रीता ने दुष्कर्म पीडित लडकियों की इज्जत के बदले में नोट फेंकने की मायावती की मानसिकता की कडी आलोचना की वहां तक तो ठीक था लेकिन उसके बाद उन्होंने जोश में ही जोश में घोषणा कर दी कि अगर पैसे देने से किसी महिला की इज्जत वापिस आ सकती है तो मायावती खुद पर दुष्कर्म होने दे और वह खुद मायावती को इसके बदले में एक करोड रुपये देने को तैयार है। रीता ने जो अभद्र टिप्पणी की वह शर्मनाक है। रीता ने इस प्रकार की अत्यंत निम्न कक्षा की निंदा कर अपनी तुच्छ मानसिकता का प्रदर्शन किया है। दुष्कर्म जैसी घटना शर्मनाक है और किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार की घटना ही नहीं बननी चाहिए लेकिन इस प्रकार की घटना बने उसे किसी व्यक्ति के साथ खास तौर पर नहीं जोडा जा सकता। उ.प्र. की मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती की खास नैतिक जिम्मेदारी है ही और उस जिम्मेदारी को निभाने में वे असफल रही है यह सच है लेकिन उसके कारण उन पर दुष्कर्म करने की बात अभद्रता की चरमसीमा ही है। मायावती बहुत जहरीली है और वह अगर मुस्लिमों के लिए जैसा तैसा बोलने वाले वरुण गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा धारा के तहत जेल में भेज सकती है तो खुद के सामने ऐसी बात करने वाली रीता बहुगुणा को छोडे ऐसा हो नहीं सकता। रीता ने बुधवार शाम को एक सार्वजनिक सभा में यह बकवास किया और माया मेमसाब ने आधी रात को रीता को न्यायिक हिरासत में भेज दिया। रीता जल्दी न छुटे ऐसी कलम भी ठोक दी और १४ दिन के रिमान्ड मिल जाये ऐसा तख्ता भी तैयार कर दिया। माया मेमसाब को गुस्सा आ जाए तो फिर वह किसी की नहीं। मायावती इतना करे उसके बाद उनके चेले पीछे रह जाये ऐसा भला हो सकता है। रीता की आधी रात को गिरफ्तारी हुई और उसी समय माया के चेले रीटा के घर पर टूट पडे और उसमें आग लगा दी। इतने से बसपा के सदस्यों को संतोष नहीं मिला हो इसलिए उन्होंने संसद को भी सिर पर उठा लिया और कार्यवाही रोक दी। बसपा को धमाल मचाने के लिए जोरदार बहाना मिल गया है इसलिए यह खेल कितने दिन चलेगा पता नहीं। रीता के टिप्पणी के बदले में सोनिया गांधी ने खेद व्यक्त किया है लेकिन राजनेता ऐसी सब बातों को गंभीरता से नहीं लेते इसलिए यह तय है कि यह बवाल जल्दी खत्म नहीं होगा।
रीता ने जो कहा वह अक्षम्य है और मायावती हो या दूसरा कोई भी हो, इस प्रकार की टिप्पणीया नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस पूरी बात को दूसरे प्रकार से भी देखने की जरुरत है। रीता जो वाणी बोल रही है वह वास्तव में मायावती की ही देन है और राजनीति में इस प्रकार की अभद्र वाणी की बोलबाला बढी उसमें मायावती का योगदान बहुत बडा है। मायावती किस प्रकार की असंस्कारी और अभद्र वाणी अपने विरोधियों के लिए इस्तेमाल करती है अगर उसकी किताब खोलने बैठेंगे तो बहुत लंबी लिस्ट बन जाये। इसी मायावती ने ढाई साल पहले मुलायम के बारे में इसी प्रकार की अभद्र टिप्पणी की थी। जनवरी २००७ में एक मुस्लिम लडकी पर दुष्कर्म की घटना बनी उस वक्त मुलायम ने दुष्कर्म पीडित लडकी के परिवार को दो लाख रुपये की सहायता दी तब मायावती ने ऐसी टिप्पणी की थी कि मुलायम के घर की बेटी पर इस प्रकार दुष्कर्म होने दो, मुस्लिम उन्हें चार लाख देने को तैयार है। आज रीता ने वही बात कही तब मायावती बौखलाई है। हालांकि यह जरुरी नहीं कि, मायावती अभद्र वाणी कहे तो उसका जवाब देने के लिए दूसरे भी उसी तरीके का इस्तेमाल करे।
जय हिंद

सोमवार, 13 जुलाई 2009

शराब त्रासदी : राजनेता, पुलिस और जनता

अहमदाबाद में जहरीली शराब ने समग्र राज्य में हाहाकार मचाया है और १६६ लोग इस तरह अचानक कुत्ते की मौत मारे गए है। ७ जुलाई को मजूर गाम से यह सिलसिला शुरु हुआ और ८ जुलाई को ओढव, अमराइवाडी, नरोडा सहित के क्षेत्र भी इसकी लपेट में आ गए। पहले दिन जहरीली शराब के सेवन से बीसेक लोगों की मौत हुई और यह आंकडा बढकर १६६ हो गया है। अहमदाबाद में १७ साल बाद जहरीली शराब के कारण इतने लोगों की मौत हुई है। यह गुजरात के इतिहास की सबसे कलंकित घटना है। हमारे देश में जब कभी ऐसी कोई घटना होती है तब लोग नींद में से अचानक जागते है और यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ इसकी कवायद शुरु हो जाती है। राजनेता अपनी खिचडी पकाने के लिए मैदान में आ जाते है और दूसरे कुछेक भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए निकल पडते है और अहमदाबाद में भी यही खेल शुरु हो गया है। चर्चा है कि इस हादसे के लिए पुलिस जिम्मेदार है और इसलिए लोगों ने पुलिस को आक्रोश का शिकार बनाया है। चर्चा का सूर यह है कि, पुलिस शराब के अड्डेवालों से हप्ता वसूलती है और देशी शराब के अड्डेवालों को साथ देती है जिसके कारण ऐसी दुर्घटनाएं होती है।
मैं ऐसा नहीं कहती कि पुलिस दूध की घुली है और वे लोग इन शराब के अड्डेवालों से हप्ता नहीं वसूलते। लेकिन शराब का जो दूषण फूला-फला है उसके लिए केवल पुलिस जिम्मेदार है यह कहना गलत होगा। पुलिस अड्डेवालों से हप्ता वसूलती है और कोई फरियाद करे तो उसकी फरियाद को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती है, शराब के अड्डेवालों की रक्षा करती है यह सब सही है लेकिन इसके कारण ही शराब का कारोबार चलता है ऐसा नहीं है। अड्डेवालों को जितनी पुलिस मदद करती है उतना ही राजनेता भी मदद करते है। उनसे पुलिस जिस तरह हप्ते वसूलती है उसी तरह राजनेता भी हप्ते वसूलते है और जिस तरह पुलिस इनकी रक्षा करती है उसी तरह राजनेता भी इनकी रक्षा करते है। और यह पाप कोई निश्चित पार्टी नहीं सभी पार्टियां करती है। हमारे देश में देशी शराब का कारोबार सिर्फ एक गैरकानूनी कारोबार नहीं है उसका राजनीति के साथ भी पूरा संबंध है। ऐसा कौन सा राजनीतिज्ञ है जो चुनाव के समय अपने वोटरों को देशी शराब नहीं पहुंचाता ? हां, हो सकता है कोई अपवादरुप राजनीतिज्ञ हो लेकिन सभी बडी पार्टियों के तमाम उम्मीदवार यह पाप करते ही है और उस समय जो शराब आता है वह आसमान से नहीं टपकता। वह शराब भी वही का होता है और उसे खरीदने वाले भी वही के होते है। मतलब कि गुजरात में देशी शराब का जो कारोबार चलता है वह अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञ इन तीनों का संयुक्त पाप है और इसके लिए केवल पुलिस को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
हालांकि यह पूरी चर्चा ही गलत रास्ते पर है। हकीकत में इस दूषण के लिए अगर सचमुच किसी को दोष देना है तो उन लोगों को देना चाहिए। अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञ देशी शराब के पाप को पालते-पोषते है क्योंकि उन्हें इसमें आर्थिक लाभ दिखता है लेकिन लोग क्यों यह देशी शराब पीते है ? लोग अगर यह शराब खरीदेंगे नहीं तो इनका कारोबार चलेगा नहीं लेकिन इनका कारोबार चलता है क्योंकि लोगों को देशी शराब के बगैर नहीं चलता। अहमदाबाद में जहरीली शराब के कारण जो लोग मरे है वे वास्तव में अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञों के पाप से नहीं मरे लेकिन अपने ही पाप से ही मरे है। इसमें दूसरे किसी को दोष देने का कोई मतलब ही नहीं है। इस जहरीली शराब के कारण जो लोग मरे है उनके रिश्ते-नातेदारों ने पुलिस के सामने आक्रोश दिखाया, पथ्थरबाजी की, धमाल मचाया यह बाबत बहुत दु:खदायी है। इन लोगों ने अगर इतना जूनून शराब के कारण अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे उनके स्वजनों को रोकने के लिए दिखाया होता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती।
अहमदाबाद के जहरीली शराब के कारण जिन्हें शराब के नाम से ही नशा चढने लगता है वे लोग अलग ही बाजा बजा रहे है। उनके अनुसार इस हादसे के लिए गुजरात की शराबबंदी जिम्मेदार है। गुजरात में अगर शराबबंदी ही ना होती तो यह घटना नहीं घटती ऐसा इनका कहना है। भारत में सबसे ज्यादा शराब कांड कर्नाटक और तामिलनाडु इन दो राज्यों में होता है और इन दो राज्यों में शराबबंदी नहीं है। अहमदाबाद में तो १७ साल बाद यह घटना हुई लेकिन इन दो राज्यों में तो हर साल पांच-सात जगह शराब कांड होता ही है और यह क्यों होता है यह समझने जैसा है।
जो लोग नकली शराब पीकर मरते है वे इसलिए मरते है क्योंकि नकली या देशी शराब यही उनकी औकात है और यह बात गुजरात को भी लागु होती है। अगर गुजरात में शराबबंदी हटा ली जाए और अंग्रेजी शराब मिलने लगे तो भी यह लोग पचास रुपये का एक पेग नहीं खरीद सकते, वे १० रुपये में मिलती थेली ही खरीदेंगे। गुजरात में शराबबंदी ना हो तो भी यह लोग वहीं थेली खरीदेंगे और पीएंगे। शराबबंदी हटे तो जो लोग आराम से घर में बैठकर शराब पीना चाहते है ऐसे लोगों को फर्क पडेगा लेकिन इन लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पडनेवाला। शराब पर प्रतिबंध लगाने के लिए दूसरे अनेक कारण है लेकिन यह शराब कांड कोई कारण नहीं है।
इस प्रकार के शराब कांड को रोकने का सबसे श्रेष्ठ उपाय कि लोग ऐसी हलकी गुणवत्ता का शराब पीना ही बंद करे और गुजरात में कानूनी तौर पर शराबबंदी है उसका पालन कर इस कानून को इज्जत बख्शे। वैसे अचानक बनती ऐसी दुर्घटना में कुत्ते की मौत मरने का विकल्प खुला ही है। और जो लोग खुद कुत्ते की मौत मरना चाहते है उनके पीछे आंसू बहाने का कोई मतलब भी नहीं है।
जय हिंद

शनिवार, 11 जुलाई 2009

डॉ. श्रीधरन की लडाई

यह किस्सा है ........पूरी दुनिया जिसे देख अचंभित हो जाये ऐसी कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो जैसी अद्भूत भेंट देनेवाले डॉ. श्रीधरन का।
तो आइये, सबसे पहले जानते है कि कौन है यह डॉ. श्रीधरन....
केरल के पलक्कड जिले में १२ जुलाई, १९३२ के दिन पैदा हुए डॉ. एलात्तुवालापिल श्रीधरन दिल्ली मेट्रो रेलवे के जनक है। इन दो प्रोजेक्टों ने श्रीधरन को विश्वविख्यात बना दिया। श्रीधरन मूल सिविल एन्जिनियर है और १९५७ में सधर्न रेलवे में प्रोबेशनरी आसिस्टन्ट एन्जिनियर के तौर पर जुडकर उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी। १९६३ में बनी एक घटना ने श्रीधरन की पहली शक्ति का चमत्कार सभी को दिया। उस समय दक्षिण के समुद्र किनारे जोरदार तूफान आया था और उसमें रामेश्वरम को तमिलनाडु से जोडता पुल टूट गया था। रेल्वे ने इस पुल को फिर से बनाने के लिए छह महिने का समय तय किया लेकिन श्रीधरन के बोस ने इस समयावधि को घटाकर तीन महिने का किया और श्रीधरन को उसकी जिम्मेदारी सौंपी। श्रीधरन ने सिर्फ ४६ दिन में इस पुल को तैयार कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। इस सफलता के लिए उन्हें रेलवे मंत्री का खास अवार्ड मिला था। १९७० में उन्हें कोलकात्ता मेट्रो स्थापना का काम सौंपा गया। देश में यह पहली मेट्रो थी। १९९० में श्रीधरन रिटायर्ड हुए उसके बाद केन्द्र सरकार ने कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट के लिए उनकी नियुक्ति की। यह प्रोजेक्ट ७६० कि.मी. लंबा है और इसमें १५० पुल आते है। हालांकि सबसे मुश्किल काम पहाडों में टनल बनाने का था। श्रीधरन ने पहाडियों के अंदर ८२ कि.मी. लंबे रुट पर ९३ टनल वाला यह प्रोजेक्ट मात्र सात साल में पूरा कर सबको दंग कर दिया था। श्रीधरन ने बहुत कम खर्च में यह प्रोजेक्ट पूरा किया। श्रीधरन को इसके बाद दिल्ली मेट्रो का प्रतिष्ठित प्रोजेक्ट सौंपा गया और श्रीधरन ने इस प्रोजेक्ट को तय किए गए समय से जल्दी और आवंटित किए गए बजट में पूरा कर दिखाया। इस प्रोजेक्ट ने श्रीधरन की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाई और उन्हें ढेर सारे अवार्ड मिले है।
श्रीधरन ने इस देश के लिए जो किया इसके मोल में कुछ नहीं आ सकता और बावजूद इसके इस देश का प्रशासन और अधिकारी उन्हें एक छोटी सी बाबत में धक्के खिला रहे है, इसका जो विवरण बाहर आया है उसे सुनने के बाद एक भारतीय के तौर पर हम सभी का सिर शर्म से झुके बिना नहीं रहेगा। श्रीधरन ने जो काम किया है उसके बदले में उन्हें जो पारिश्रमिक तय हुआ है वही लेना है और यह उनका अधिकार है। फिर भी उन्हें अपने हक के पैसे लेने के लिए एक ऑफिस से दूसरी ऑफिस भिखारी की तरह धक्के खाने पड रहे है। सबसे आघातजनक बात तो यह है कि जो लोग श्रीधरन की सफलता पर सत्ता भोग रहे है या वाहवाही लूट रहे है उसमें कोई राजनीतिज्ञ श्रीधरन को मदद करने को तैयार नहीं है। मदद की बात छोडो लेकिन श्रीधरन को अपने अधिकार के पैसे ना मिले इसके लिए इन्ही नेताओं के सरकार के अधिकारी नाटक कर रहे है और फिर भी सब चुप्पी साधे बैठे है।
श्रीधरन पहले भारतीय रेलवे में नौकरी करते थे और इस नौकरी के दौरान उन्होंने ऐसे कई काम किए है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। १९९० में वे रिटायर्ड हुए उसके बाद इन्हीं सफलताओं के चलते उन्हें कोंकण रेलवे का काम सौंपा गया था। पहाडियों के बीच रेलवे लाईन डालने की बात तो सालों से हो रही थी लेकिन किसी में ऐसी सूझबूझ नहीं थी कि यह प्रोजेक्ट पूरा कर सके। श्रीधरन ने इस चेलेन्ज (प्रोजेक्ट) को सात साल में ही पूरा कर दिखाया। कोंकण रेलवे आज भी दुनिया में एन्जिनियरिंग के एंगल से एक चमत्कार माना जाता है और दुनिया के अच्छे-अच्छे टेक्नोक्रेट उसे देख दंग रह जाते है।
श्रीधरन कोंकण रेलवे में सीइओ के तौर पर जुडे और उनकी नियुक्ति पांच साल के लिए थी। उस समय उनकी तनख्वाह रु. ९००० के बेजिक स्केल पर तय हुई थी। श्रीधरन ने काम तो शुरु कर दिया लेकिन सरकारी अधिकारी ऐसा फतवा ले आए कि श्रीधरन की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की गई पुन:नियुक्ति है इसलिए वे या तो पेन्शन ले सकते है या कोंकण रेलवे के सीइओ के तौर पर तनख्वाह ले सकते है। इस फतवे के आधार पर उन्होंने श्रीधरन की तनख्वाह में से हर महिने ४००० काटने का शुरु किया। श्रीधरन ने उस समय रिकवेस्ट भी की लेकिन उन्हें कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। श्रीधरन के लिए प्रोजेक्ट ज्यादा महत्वपूर्ण था इसलिए उन्होंने सोचा कि यह मामला बाद में निपटा लिया जाएगा। प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद उन्होंने फिर से अपनी तनख्वाह में से काटे गए पैसे मांगे तभी उन्हें फिर से वही फतवा पकडा दिया गया।
बिफरे हुए श्रीधरन कोर्ट में पहुंचे और केस शुरु हुआ। केस लंबा चला और आखिर में हाइकोर्ट ने श्रीधरन के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने श्रीधरन की नियुक्ति को नई नियुक्ति बताकर केन्द्र को रु. १० लाख चुकाने का आदेश दिया। हालांकि प्रशासन को यह फैसला रास नहीं आया इसलिए उन्होंने इस फैसले को चुनौती देने का तय किया। इस निर्णय से दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिफर गए और उन्होंने केन्द्र सरकार के अधिकारियों पर सख्त दंड डालने की धमकी दी उसके बाद केन्द्र सरकार ने यह अरजी वापिस ली। चीफ जस्टिस शाह ने अधिकारियों को कहा कि जिस इंसान ने इस देश की इतनी सेवा की है उस इंसान को आप इस तरह धक्के खिला रहे हो और बेइज्जत कर रहे हो इसके लिए आपको शर्म आनी चाहिए और जिस अधिकारी ने कोर्ट के फैसले के सामने अपील करने की सलाह दी है उस पर दंड डाल देना चाहिए।
श्रीधरन को हाइकोर्ट के कारण न्याय तो मिला लेकिन पैसे कब मिलेंगे पता नहीं। जिस इंसान ने देश की इतनी सेवा की उसे अपने हक के पैसे देने के लिए दो गज के अफसर लोग इस तरह परेशान करे यह बेहद शर्मनाक है। शीला दीक्षित ने दिल्ली में मेट्रो रेलवे उन्होंने दिया है और लाखों दिल्लीवासियों के कलेजे को ठंडा किया है ऐसा प्रचार कर गद्दी पर बैठी लेकिन वास्तव में जिसके कारण लाखों लोगों को सुविधा मिली है उनकी मदद करने को वे तैयार नहीं है।
जय हिंद

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

प्रणब दा का गांव, गरीब व मध्यमवर्ग को उपहार

समग्र देश जिसका बेसब्री से इंतजार कर था वह आम बजट आखिर पेश हो गया। केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार की वापसी के बाद यह पहला बजट था। लोग ऐसी उम्मीदे पालें बैठे थे कि उन्होंने यूपीए को झोली भर-भरकर वोट दिए और फिर से केन्द्र में सत्ता दिलाई उसका अहसान प्रणब दा थोडी बहुत राहतें देकर जरुर चुकायेंगे लेकिन यह उम्मीद नाकाम साबित हुई है। हालांकि इंसाफ की खातिर कहें तो प्रणब दा ने लोगों को एकदम हलाल भी नहीं किया है और राहतें दी है लेकिन इसके बावजूद लोग निराश है क्योंकि यह राहतें लोगों की उम्मीदों के मुताबिक नहीं है।
लोग और खासतौर पर नौकरी-पेशा वर्ग प्रणब दा से आयकर में जोरदार राहतों की उम्मीदें पाले बैठा था और उनका ऐसा मानना था कि आयकर की छूट सीमा बढकर दो लाख के करीब हो जायेगी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में आयकर की छूट सीमा बढाकर तीन लाख रुपये करने का विश्वास दिलाया था और बावजूद इसके इससे बिना ललचाये हमने कांग्रेस को वोट दिया इसलिए नौकरी-पेशा वर्ग का ऐसा मानना था कि कांग्रेस तीन गुना नहीं तो दो लाख तक की आयकर की छूट सीमा कर देगी लेकिन प्रणब दा उन्हें धोखा दे गए। प्रणब दा ने आयकर की छूट सीमा बढाई लेकिन बमुश्किल से १० हजार। इससे नौकरी-पेशा वर्ग को साल में बमुश्किल एकाद हजार का मुनाफा होगा। एक हजार रुपये में अब कुछ नहीं मिलता है तब इन राहतों से नौकरी-पेशा वर्ग निराश है। ऐसी ही हालत कॉर्पोरेट जगत की है। कॉर्पोरेट जगत मंदी का शोर मचाता था और मंदी के नाम से राहतें मांगता था लेकिन प्रणब दा ने उन्हें ठेंगा दिखाया है और कॉर्पोरेट टेक्स के दरों में कोई फेरबदल नहीं किए है। फ्रिन्ज बेनिफिट टेक्स हटाया तो है लेकिन उसका फायदा कॉर्पोरेट कंपनियों को ज्यादा नहीं होनेवाला इसलिए कॉर्पोरेट जगत निराश है। शेयर बाजार इस बार बहुत बडे पैकेज की उम्मीद पालें बैठा था और प्रणब दा ने कोमोडिटी ट्रान्जेक्शन टेक्स को दूर कर कोमोडिटी बाजार को खुश कर दिया और शेयर बाजार को लटका दिया जिसका उन्हें झटका लगा है। शेयर बाजारों में सोमवार को इसी के चलते ऐतिहासिक गिरावट आई। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है और सभी की बात करना यहां मुमकिन नहीं लेकिन थोडे में कहें तो लोगों ने जो बडी-बडी अपेक्षाएं रखी थी उस तरह का बजट प्रणब दा ने पेश नहीं किया। हालांकि इसमें गलती लोगों की है, प्रणब दा की नहीं। यूपीए सरकार की सत्ता में वापसी के बाद का यह पहला बजट है और अभी सरकार को कोई जरुरत नहीं कि वह वोटबैंक को ध्यान में रख बजट पेश करे। लोकसभा चुनाव में अभी पांच साल की देर है और ऐसे किसी राज्यों में चुनाव भी नहीं आ रहे कि उसके कारण सरकार को कोई नाराज ना हो जाये इसकी ऐतियात बरतनी पडे। प्रणब दा ने जो बजट पेश किया है वह वास्तव में तो यूपीए सरकार को लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को आगे बढाने की कोंग्रेस की रणनीति का एक हिस्सा मात्र है और उन्होंने उसी वर्ग को खुश रखने का प्रयास किया है जिस वर्ग ने उन्हें फिर से सत्ता में आने में मदद की है। प्रणब दा के इस बजट में गांव के लोगों की सुख-सुविधाएं बढे इसके लिए दोनों हाथों से पूंजी का आवंटन किया गया है और इसी तरह किसानों को भी जहां तक हो सके खुश रखने का प्रयास किया गया है। प्रणब दा ने गांवों में पक्की सडक योजना से लेकर ग्रामीण रोजगार योजना के लिए आवंटन में हाथ खुले रखे है और कोई कसर ना रह जाये इसका खयाल रखा है। इसी तरह किसानों पर भी प्रणब दा मन लगाकर बरसे है।
यूपीए की सफलता में सबसे बडा हाथ किसानों के लिए कर्ज माफी योजना का था और उ.प्र जैसे राज्यों में तो इस योजना के दम पर कांग्रेस फिर से खडी हो पाई है। इस बजट में यह योजना और ६ साल के लिए बढाई गई है। इसके अलावा जो किसान जल्दी लोन भरे उन्हें ब्याज में एक प्रतिशत माफी और तीन लाख रुपये तक के लोन पर मात्र सात प्रतिशत ब्याज जैसे कदम उठाए गए है। ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर्स को मजबूत बनाने के लिए जो कदम उठाए गए है उसका फायदा भी अंत में किसानों को ही मिलनेवाला है जिसे देख किसानों के लिए दोनों हाथों में लड्डू है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रणब दा के बजट के सामने कॉर्पोरेट जगत चाहे रोये या नौकरी-पेशा वर्ग सिर फोडे या शेयर बाजार हाहाकार मचाये लेकिन यह बजट इस देश में बदल रहे समीकरण का संकेत है। भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरु हुआ उसके बाद ऐसा माहौल हो गया था कि अर्थतंत्र यानि शेयर बाजार और मल्टिनेशनल कंपनियां ही सब कुछ है। आर्थिक उदारीकरण के नाम से कॉर्पोरेट क्षेत्र और कंपनियों को राहतें दी जाए तो बजट अच्छा, नहीं दी जाए तो बजट खराब, जैसा माहौल पैदा हो गया था। टीवी चैनलों में बैठे एनालिस्ट और शहरों में रहते पत्रकार इसी गज से बजट को मापते और इसी के आधार पर बजट अच्छा है या बुरा यह तय करते थे। प्रणब दा ने इस परंपरा को तोडने का प्रयास किया है और इसके लिए उन्हें मेरा सलाम। इस देश में ७० प्रतिशत लोग गांवों में बसते है और इस देश के अर्थतंत्र की रीढ ही खेती है तब उसकी उपेक्षा कर भला आप कैसे चल सकते है? इससे इंकार नहीं कि उद्योग किसी भी देश के लिए महत्वपूर्ण है और निवेश भी महत्वपूर्ण है लेकिन उन्हें खेरात करो और खेती की या खेती पर टिकनेवाले गांवों के लोगों की उपेक्षा करो यह ठीक नहीं।
पिछले डेढ-दो दशक के दौरान यही खेल चला और सभी राजनीतिक पार्टियां उदारीकरण की रोशनी से भरमाकर शेयर बाजार और नौकरीपेशा वर्ग को खुश करने के लिए बजट पेश करती गई। इस गलती की किमत तमाम राजनीतिक पार्टियों ने चुकाई और उससे भी ज्यादा इस देश ने चुकाई। इस देश में जो राजनीतिक अस्थिरता पिछले डेढ-दो दशक के दौरान देखने को मिली उसके मूल में यही गिनती थी। भाजपा ने उसके छह साल के शासन में अच्छे काम नहीं किए ऐसा भी नहीं है। इस देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में इन छह सालों में बहुत काम हुए। एक्सप्रेस वे इसका श्रेष्ठ उदाहरण है और बावजूद इसके भाजपा फिर से सत्ता में क्यों नहीं आई? क्योंकि वह इन्डिया शाइनिंग की बातें कर उन्हीं लोगों को प्रभावित करने के प्रयास करती रही जिनके पास आवाज तो है लेकिन इस देश की बागडोर किसके हाथ में सौंपनी है इसकी चाबी नहीं। यह चाबी तो गांवों में रहते करोडों भारतीयों के हाथों में है और भाजपा उन्हें ही भूला बैठी।
कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार की रचना हुई उसके बाद से शुरुआत में तो कांग्रेस ने भी यही गलती की थी लेकिन बाद में कांग्रेस के कुछेक समझदार लोगों को मालूम हुआ कि ऐसा ही चलता रहा तो भाजपा की तरह हमारा भी काम तमाम हो जायेगा और उन्होंने गांवों को ध्यान में रखकर खेल जमा दिया। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से लेकर किसानों के कर्ज माफी तक के कार्यक्रमों को अमल में रखा गया और उसका फल कांग्रेस को मिला।
इस बजट से प्रणब दा ने एक संदेश दिया है और अहसास कराया है कि यह बजट सिर्फ शेयर बाजार या नौकरी-पेशा या कंपनियों के लिए नहीं है।
जय हिंद

बुधवार, 1 जुलाई 2009

लिबराहन आयोग का रिपोर्ट

भाजपा के लिए अभी जो समय चल रहा है उसे देख लगता है कि उसके लिए ग्रहदशा खराब चल रही है। लोकसभा चुनाव परिणाम के शिकस्त का जख्म अभी ताजा ही है, वही भाजपा के लिए लिबराहन आयोग के रिपोर्ट के रुप में एक नया झमेला खडा हो गया है। 6 दिसम्बर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद को ढहाया गया उसके बाद बाबरी क्यों ध्वंस हुई उसके कारणों की जांच करने के लिए और जिन्होंने बाबरी ध्वंस में खलनायक की भूमिका निभाई थी उन्हें ढूंढने के लिए लिबराहन आयोग की रचना की गई थी। मूल तो इस आयोग को अपना रिपोर्ट 16 मार्च, 1993 को यानि कि बाबरी ध्वंस हुई उसके तीन महिने में देना था लेकिन हमारे देश में किसी जांच आयोग ने तय किए गए समय में अपना रिपोर्ट दिया है तो भला लिबराहन आयोग कैसे देती ? लिबराहन आयोग ने तीन महिने में जो रिपोर्ट देना था उसे तैयार करते-करते 17 साल निकाल दिए। हालांकि उसमें लिबराहन आयोग का दोष नहीं है। लिबराहन आयोग के कहने के मुताबिक इस मामले में जो लोग शामिल थे उनके नखरे और आपत्ति के नाटक के चलते इतनी देर हुई। हालांकि लिबराहन आयोग ने अपना रिपोर्ट दे दिया और ऐसे समय में दिया है कि भाजपा के नेतागण के पास बचने के लिए कोई रास्ता न हो।
लिबराहन आयोग के रिपोर्ट में क्या होगा इसकी घोषणा नहीं की गई है लेकिन इस रिपोर्ट में क्या होगा इसकी कल्पना मुश्किल भी नहीं है। बाबरी मस्जिद ध्वंस हुई उसके मूल में लालकृष्ण आडवाणी मंडली थी। आडवाणी ने हिन्दू वोटबैंक हडपने के लिए राममंदिर का अभियान चलाया और ‘कसम राम की खाते है मंदिर वही बनायेंगे’ के नारे लगवाये उसके कारण हिन्दूओं में एक जबरदस्त उन्माद पैदा हुआ और उस उन्माद को वोटबैंक में तबदील करने के लिए आडवाणी मंडली ने कारसेवा शुरु करवाई। उस समय संघ परिवार में अभी जैसी दरारें है वैसी दरारें नहीं थी और विहिप, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी आदि एक थे और आडवाणी उन सभी के प्यारे-दुलारे थे। कारसेवा के नाम से संध परिवार ने 1991 में पहली बार बाबरी मस्जिद पर हल्ला बोला वही राममंदिर बनाने का प्रयत्न किया और आडवाणी ने रथयात्रा निकाली। लेकिन उस समय बिहार में लालूप्रसाद यादव का राज था और लालू ने आडवाणी की रथयात्रा अयोध्या पहुंचे उससे पहले ही उन्हें जेल में भेज दिया।
उ.प्र में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और मुलायम मुस्लिम वोटों के लिए किसी भी हद तक जाने में उस समय भी नहीं शर्माते थे इसलिए उन्होंने कारसेवकों पर गोलियां चलवाई और कुछेक का काम तमाम करवा दिया। मुलायम के हमले के कारण उस समय तो कारसेवक ठंडे हो गये लेकिन यह गोलियां मुलायम को बहुत भारी पड गई। मुलायम को इसके कारण सत्ता से हाथ धोना पडा और उ.प्र. में पहली बार भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई, कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने। भाजपा सत्ता में आते ही संघ परिवार फिर से मैदान में आ गया और फिर कारसेवा का खेल शुरु हुआ। कारसेवकों के लिए यह अच्छा मौका था और जो जी में आये उसे करने की इजाजत थी। इसमें भी कोई कसर बाकी न रहे इसके लिए आडवाणी, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी सहित के भाजपा नेता उपस्थित थे और उन्होंने सभी कसर पूरी कर ली। इतना बडा गुट हो और कोई कहने वाला नहीं हो वहा क्या नहीं हो सकता ? इसीके चलते बाबरी मस्जिद ध्वंस हुई।
बाबरी मस्जिद टूटने के बाद आडवाणी सहित के नेता उत्साह में थे। कल्याण सिंह ने 6 दिसम्बर 1992 से पहले ही सुप्रीम कोर्ट को यकीन दिलवाया था कि बाबरी मस्जिद का कंकर भी नहीं ढहेगा लेकिन इसके बावजूद बाबरी ध्वंस हुई। हालांकि कट्टरवादी हिन्दू कल्याण सिंह की इस मर्दानगी पर फिदा थे और इसका नशा उनके दिमाग पर छाया हुआ था। आडवाणी भी बराबर उत्साह में थे और उन्होंने इसी उत्साह के चलते 6 दिसम्बर को विजय दिन घोषित कर दिया था। यह बात अलग है कि भाजपा के नेता बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी स्वीकारने को तैयार नहीं थे और इस मामले जो समस्याएं खडी हुई उसके बाद भाजपा ने खुद बाबरी ध्वंस के मामले अपने हाथ ऊपर कर लिए। वाजपेयी ने तो संसद में बाबरी ध्वंस के लिए माफी मांगी थी। तब से लेकर आज तक जब-जब बाबरी ध्वंस की बात निकलती है तब भाजपा के नेता आगे-पीछे होने लगते है। भाजपा के नेताओं में उस समय भी इतनी नैतिक हिम्मत नहीं थी कि बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी स्वीकारे और आज भी उनमें हिम्मत नहीं है। राम मंदिर के लिए जान की बाजी लगाने की बात करनेवाले भाजपा के नेताओं ने उसके बाद चुप्पी साध ली। केन्द्र में 6 साल के लिए भाजपा की सरकार आई और कल्याण सिंह भी वापस उ.प्र. की गद्दी पर बैठे लेकिन ‘कसम राम की खाते है, मंदिर वहीं बनायेंगे’ का उदघोष करनेवाले भाजपा को इस दौरान कभी राममंदिर बनवाने की याद नहीं आई। वे हिन्दुत्व को नहीं भूले यह बताने के लिए भाजपा के नेतागण बीच-बीच में अयोध्या में भव्य राममंदिर बनवाने की बाते कर लेते है लेकिन राममंदिर कब बनायेंगे यह नहीं बताते। और इस माहोल में लिबराहन आयोग का रिपोर्ट आया है। लिबराहन आयोग के रिपोर्ट में क्या होगा यह कहने की जरुरत नहीं है। बाबरी ध्वंस के लिए आडवाणी मंडली जिम्मेदार है ऐसा इस रिपोर्ट में लिखा होगा इस रिपोर्ट को बिना पढे ही कह सकते है। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और उसे तो इस रिपोर्ट के रुप में मिठाई की दुकान ही मिल गई है। वह ऐसा मौका जाया करे ऐसा हो नहीं सकता। कांग्रेस बहुत तेजी से यह रिपोर्ट संसद में रखेगी और भाजपा का बेन्ड बजा देगी। बाबरी ध्वंस का मामला आज 17 साल बाद भी एकदम संवेदनशील है और खास तौर पर भाजपा के लिए। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी हार के लिए जो कारण दिए है उसमें एक कारण मुस्लिमों का भाजपा की ओर आक्रोश भी है और भाजपा हिन्दुत्व का बाजा बजाने गया उसमें मुस्लिमों ने भाजपा का बेन्ड बजा दिया ऐसा भाजपा के नेतागण कह चुके है।
इस रिपोर्ट के बारे में भाजपा ने जो प्रतिक्रिया दी है वह भी देखने जैसी है। भाजपा के कहने के मुताबिक आडवाणी सहित के उसके नेतागण बाबरी ध्वंस के मामले एकदम निर्दोष है और उन्हें राजनीतिक कारण से फंसाया गया है। यह प्रतिक्रिया भाजपा का पलायनवाद है। अयोध्या में लाखों कारसेवकों को इकट्ठा किसने किया ? उनके सामने उकसाने वाले प्रवचन किसने दिया ? भगवान राम और हिन्दुत्व की दुहाई किसने दी? और यह सब करने के बाद यह लाखों लोगों का गुट वहां भजन थोडे ही करेगा, मस्जिद तोडे इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
भाजपा दोनों ओर मलाई चाहती है और यही उसकी समस्या है। बाबरी ध्वंस हुई यह अच्छा हुआ या गलत यह मुद्दा अभी अप्रस्तुत है। अगर भाजपा को लगता हो कि बाबरी मस्जिद टूटी यह गलत हुआ तो उसे मुसलमानों की माफी मांगनी चाहिए और लगता हो कि बाबरी टूटी इसमें कुछ गलत नहीं हुआ तो उसे स्वीकार करना चाहिए कि हमारे अभियान के कारण मस्जिद टूटी इसका हमें जर्रा भी अफसोस नहीं है। ऐसी हिम्मत आडवाणी को दिखानी चाहिए।
जय हिंद