सोमवार, 26 जनवरी 2009

मां भारती का पैगाम... देशवासियों के नाम...

प्यारे बच्चों,
आज देश ६० वां गणतंत्र मना रहा है लेकिन मैं इस आजादी से असंतुष्ट हूं... चिंतित हूं... कशमकश में हूं... क्योंकि मुझे शिकायत है... जिस देश के नेताओं के पास नीति न हो, कर्मचारियों के स्वभाव में जिम्मेदारी न हो, जहां दलालों और गुंडों का राज चलता हो, दहेज हत्याएं होती हो, बेईमानी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढती जायें, जहां सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की दुर्दशा बनी हो, जहां थानों में एफआईआर दर्ज न होता हो, जहां सांप्रदायिकता फलती-फूलती हो, जहां आम जनता बदहाल-बेहाल हो, जहां सरकारी अस्पतालों में दवा न हो, डॉक्टर न हो, काले धन से राजनीति चलती हो, जहां आम आदमी की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नार्थ लगा हो, लोगों पर देश में सियासत होती है और वे प्यादों की तरह आपस में लडवाये जाते हो, उनके हकों के लिए कितना काम होता है? देश में सबसे बूरे हाल में अगर कोई है तो वह आम आदमी है जो वोट देता है, सरकार बनाता है लेकिन सरकार बनने के बाद वह आम आदमी कहां होता है पता है? वो आम आदमी जिसके होने का दावा तमाम सरकारें करती है अगर मुसीबत में होता है तब कोई सरकार उसके मदद के लिए क्यों नहीं आती? यह एक कडवा सच है, जहां हम सभ्य, सुसंकृत, परंपराओं के पालनहारी होने का दावा करते तो है लेकिन कितने दावे सही साबित होते है। ऐसे में भला मुझे चैन कहां से मिल सकता है।
हां, बहुत सारी शिकायतें है मुझे आपसे....
भारत संतों, महात्माओं, ऋषियों और साधुओं का देश है। लेकिन आसाराम जैसे ढोंगी और पाखंडी साधु के आश्रम में निर्दोष बच्चों की बलि चढाई जाती है। आसाराम और उनका बेटे नारायण सांई ने आम जनता के करोडों रुपयों की जमीन हडप ली और अनेक कुवारिकाओं के अस्मिता से खिलवाड किया फिर भी सरकार के चारों हाथ उन पर है। क्यों?
अभी कुछ महिने पहले गुजरात के जुनागढ जिले में मेरे सबसे प्यारे बेटों में से एक गांधी की प्रतिमा को खंडित किया गया। मायावती अपने आप को "दलित क्वीन" समझती है। देश के करोडों दलित आज भी गरीबी, भूखमरी और अन्याय का भोग बने हुए है। लेकिन "दलित क्वीन" अकेली धन से लोटपोट है। मायावती ने सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा को ध्वस्त करवा दिया। क्योंकि मायावती को जीते जी अपनी प्रतिमा लगवाने का शौक है। मेरे बेटे सरदार को सार्वजनिक रुप से अपमानित किया गया जिसे देश के तमाम राजनीतिक पार्टियों ने मूक बन कर देखा। सब खामोश रहे। मायावती यह भूल गई कि उनके जैसी कितनी ही मायावती आयेगी और जायेगी लेकिन गांधी या सरदार कभी नहीं भुलाये जायेंगे। क्योंकि गांधी या सरदार उनके कार्यो से, विचारों और सिध्धांतों से शाश्वत है। उनकी जगह हिन्दुस्तान के लोगों के दिलों में है। सरदार के विराट व्यक्तित्व के सामने मायावती का कद और ऊंचाई मायावती की तरह बौना है और रहेगा।
इतिहास गवाह है कि इस देश में मुसलमानों का जो आतंकवाद था वह पहले जम्मू और काश्मीर तक ही था। आतंकियों की मंशा काश्मीर को भारत से अलग करने तक सीमित थी। लेकिन भारत की राजनीति में एल के आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छाशक्ति जगने के बाद उन्होंने भगवान राम के नाम से यात्रा निकाली और भारतीय सेना के सुरक्षा व्यवस्था के बीच काश्मीर जाकर श्रीनगर में ध्वज लहराया। राम रथ यात्रा वास्तव में दिल्ली में सत्ता पाने की यात्रा थी। दिल्ली में सत्ता हासिल होने के बाद आडवाणी भगवान राम को भूल गये। उसके बाद आडवाणी और उमाभारती जैसे गैरजिम्मेदार नेताओं की अगुवाई में बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुआ इस धटना को पूरी दुनिया के मुसलमानों ने नोट किया। उसके बाद गोधरा में ट्रेन की घटना घटी। इस घटना के लिए जिम्मेदार गुन्हेगारों पर कार्रवाई करने के बजाय पूरे गुजरात के निर्दोष मुसलमानों को टारगेट बनाया गया। इस देश में बसनेवाले सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है। इस देश का आम और समझदार मुस्लिम भाईचारे से रहना चाहता है। लेकिन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद दो हजार निर्दोषों को जिंदा जलाया गया। जिसकी एक बार फिर पूरी दुनिया ने समीक्षा की। वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ निभाने की सार्वजनिक सलाह दी। ‘राजधर्म’ का मतलब होता है जनता की रक्षा... चाहें वह हिन्दू हो या मुसलमान। ‘टाइम्स ऑफ इन्डिया’ के मुख्य पृष्ठ पर दो हाथ जोडकर अपनी जिंदगी के लिए मदद मांग रहें एक गरीब मुसलमान की तस्वीर देखी पूरी दुनिया ने। परिणाम क्या हुआ? गल्फ देशों से लेकर लंदन में रहते मुस्लिम हाइ लाइनर्स लोगों ने पाकिस्तान में ट्रेनिंग स्कूल चला रहे आतंकवादियों से कहा, "जितने डॉलर या पाउन्ड चाहियें ले जाओ, लेकिन हिन्दुस्तान को आग लगा दो, हिन्दूओं को काट डालो, भारत को तबाह कर दो।"
उसके बाद पाकिस्तान अधिकृत चल रहें आतंकी शिबिरों में गरीब और गुमराह युवाओं को नरेन्द्र मोदी और प्रवीण तोगडिया के भाषणों की सीडी सुनाई गई। मुसलमान युवाओं में बदले की भावना भरकर उन्हें जोशपूर्वक तैयार किया गया और हर दो महिने भारत में बम धमाके होते रहे।
भारत में इतनी हद तक आतंक का खूनी पंजा नहीं फैला था। इसके लिए आडवाणी और उनके जैसे कट्टर साथियों की खूनी राजनीति जिम्मेदार है। कोम के नाम पर उनके द्वारा किए गए भडकाऊ भाषण से शुरुआत में सफलता भी मिली है। लेकिन जनता जब खूनी खेल का भोग बनती है तब ही लोगों की समझ में आता है कि यह तो सत्ता प्राप्ति के लिए खेला गया खूनी खेल मात्र है। भाजपा का एक सीधा-सादा समीकरण है कि जितने कोमी दंगे ज्यादा और जितने बम धमाके ज्यादा उतना भाजपा को फायदा भी ज्यादा। यह आग उगलते भाषणों से किसी को कुर्सी मिल जाती है और मंत्री पद पर बैठे हुए को कमान्डों की जेड प्लस सुरक्षा भी मिल जाती है लेकिन जनता को आतंकवादियों के हवाले कर दिया जाता है। आतंकवादी घटना में किसी मंत्री का बेटा, पत्नी, बहन या भाई नहीं मरता। निर्दोष जनता ही अपनों को गवा देती है।
देश के थोडे बहुत मुसलमान गुमराह भी हुए है। "सिमी" जैसी खतरनाक संस्थाएं देश में कार्यरत है। ऐसी संस्थाएं मुसलमानों की भलाई के लिए नहीं है। परदेस में से आतंकवादियों को मदद करनेवाली ऐसी संस्थाओं के कृत्य गोधराकांड जैसे प्रत्याघातों को जन्म देता है। नेतागण और गुमराह हुए दोनों कोम के कट्टरपंथियों को मेरी गुजारिश है कि वे आनेवाले समय को परख लें। आडवाणी को लडना है तो पाकिस्तान के सामने लडे लेकिन भारत के हिन्दू-मुस्लिम को आपस में लडवाने का काम बंद करें। रामराज्य की बातें करनेवाली भाजपा शासित गुजरात में 96 देवस्थल ढहा दिये गये।
गुजरात राज्य में बिल्डर अमृतलाल पटेल ने अपने बेटे को पोइन्ट ब्लेन्क रेन्ज से मौत के घाट उतारा था। अमृतलाल को कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। इस बिल्डर के पास करोडों को जमीन है। और गुजरात सरकार ने उनकी सजा को माफ करवाया। यानि अदालत ने की सजा का कोई मतलब ही नहीं है। ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई’। गुजरात सरकार ने किन कारणों से अमृतलाल जैसे हत्यारे को कोर्ट ने दी सजा माफ कर दी यह तो माफी देनेवाले जानें। लेकिन आम समाज में यह संदेश जरुर पहुंचा है कि सरकार चाहें वह कर सकती है। पहले खून करो... फिर पुलिस को खरीद लो... पुलिस आपके केस को कमजोर बनाने में मदद करेगी... और कोर्ट जो सजा सुनायेगी उसमें से आधी सरकार माफ कर देगी। बस आपके पास सिफारिश होनी चाहिए। यह सजा मुफ्त में तो माफ नहीं हुई होगी। बेटे के हत्यारे की सजा माफ करने का निर्णय कोई एक अधिकारी तो नहीं ले सकता। यह निर्णय पूरी तरह से राजकीय है। अमृतलाल का केस हाइ-प्रोफाइल था। पूरे गुजरात की उस पर नजर थी। नामदार कोर्ट ने पूरी मानसिक कवायत के बाद अमृतलाल को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन राज्य सरकार ने तो सजा माफी के नियमों में खास बदलाव कर चुपके से अमृतलाल को जेल में से बहार निकालकर न्यायतंत्र के पवित्र मूल्यों की हत्या ही कर दी। अमृतलाल को जेल में कैद करने के बावजूद वे किसी न किसी बहाने जेल के बाहर ही रहे। बीमारी के बहाने अस्पताल के एयरकन्डिश्नर रुम में रहे। गुजरात की जेलों की दुर्दशा सभी जानते है। यहां जेलों में शराब की बोटलें और मोबाइल आसानी से मिल जाते है। जेलों में नामचीन गुंडे अपना धंधा रिमोट कंट्रोल से आराम से चलाते है। यह जेलें अपराधों की युनिवर्सिटी में तब्दील हो गई है। ऐसी जेलें अमृतलाल जैसे मालदार को भला पैसों के बदले कौन सी सुविधा मुहैया न करवाता?
हां, ऐसी जेलों में मुश्किलें गरीब और सामान्य कैदी को होती है। आपके पास पैसा और पावर नहीं तो कुछ नहीं। यह दुर्दशा सिर्फ गुजरात की नहीं पूरे देश की जेलों की है। अब तो पूरे देश का कानून खरीदा जा सकता है, सरकार खरीदी जा सकती है। नेताओं को खरीदा जा सकता है।
जेल की बात निकली है तो मुझे कुछेक नेताओं के बारे में भी कहना है। लालु प्रसाद यादव करोडों रुपये का चारा घोटाला कर चुके है उन्हें कोई जेल नहीं। बल्कि वे तो केन्द्रीय केबिनेट में रेल मंत्री है। मायावती ताज कोरिडोर में करोडों खा गई लेकिन वो भी जेल में होने के बजाय उ.प्र. की चीफ मिनिस्टर है। मुलायम सिंह के पास आमदनी से ज्यादा अरबों रुपये की संपत्ति का केस है फिर भी वे जेल के बजाय महल में रह रहे है। सुखराम ने अरबों रुपयों का टेलिकोम्युनिकेशन्स कौभांड किया फिर भी जेल का दरवाजा नहीं देखा। केन्द्र के शिपिंग मिनिस्टर घोटालेवाले मंत्री होने के बावजूद पुलिस उन्हें नहीं पकड सकती। दूसरी ओर 500 रुपये की रिश्वत लेने वाले क्लार्क को जेल भेज दिया जाता है। तमिलनाडु में जयललिथा के पास 10 हजार साडियां, 1000 जूते और अरबो रुपयों की संपत्ति होने के बावजूद लांच-रिश्वत विभाग उन्हें छु भी नहीं सकता। करोडों रुपये के नकली स्टेम्प पेपर घोटाले के मास्टर माइन्ड तेलगी ने नार्को टेस्टे के दौरान छगन भुजबल और शरद पवार का नाम दिया था, लेकिन वे भी कभी जेल नहीं गए, अरे उनकी पूछताछ तक नहीं हुई। आम आदमी और पैसेवालों के लिए अलग-अलग कायदे-कानून है। कानूनी निष्णातों के मुताबिक, गुजरात में इस प्रकार की सजा माफी का यह प्रथम किस्सा है।
मैंने ऐसा कभी नहीं सुना है कि, इस देश में कोई राजनीतिक नेता जेल गया हो। आप मंत्री हो तो कानून आपको छु भी नहीं सकता। आप किसी राजनेता को खरीद सकते हो तो आप कुछ भी कर सकते हो।
रामलिंग राजू ने जो किया उससे देश-परदेश में लाखों लोगों का भरोसा टूटा है। उन मध्यमवर्गीय मानवों की भाग्यकामना दुर्भाग्य में तब्दील हो गई, जिन्होंने अपनी गाढी कमाई को आडे वक्त में इस्तेमाल करने की आस में सत्यम के शेयर खरीदे थे। सत्यम की इस जालसाजी से दुनिया में मेरी इज्जत को बट्टा लगा है। जिस कंपनी का हिस्सा बनते हुए कर्मियों को गर्व का एहसास हो, जिसके शेयर धारक अपने निवेश को लेकर बेखौफ हों, उसने ऐसा क्यों किया? एक ओर वह लाचार आदमी जो ईमानदारी से संघर्षरत है और दूसरी तरफ है नैतिक रूप से पतनशील आदमी जो धन की हवस में कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। इसे राष्ट्रीय शर्म का दर्जा दिया गया। इतिहास गवाह है कि जब किसी देश की नैतिकता का पतन होता है तब वह किसी मामूली आक्रमण का सामना भी नहीं कर सकता।
देश मंदी की मार झेल रहा है। वहीं गुजरात में हीरा उद्योग के कर्मी मजबूरी में आत्महत्या कर रहे है। कौन बचायेगा उन्हें? पिछले तीन माह में कितने ही परिवार उजड गये। क्या ये भूख और बेबसी सहने के लिए सरकारें बनती है? हीरा उद्योग के उद्योगपति इन्हीं कामदारों को निचोडकर आज अरबोपति बन गए है। यह मंदी जैसे इन कामदारों के लिए यमराज बन कर आई है। मंदी के चलते कारखानों के मालिकों ने अपने नुकसान को बचाने के लिए जल्दी-जल्दी अपने दरवाजें बंद कर लिये है। एक कामदार की बीवी ने अपनी बच्ची के साथ अग्निस्नान कर लिया। अभी दो दिन पहले भावनगर में एक हीरा उद्योग के कामदार ने आटे के डिब्बे को लूटने का प्रयास किया। जिसके घर में तीन-तीन दिन तक अन्न का दाना न हो, जो अपने परिवार को भूख से तडपते नहीं देख सकता वो करे भी तो क्या करे? लाखों रुपये जश्न मनाने के लिए बर्बाद करनेवाली सरकार क्या इन बेबस कामदारों के लिए रोटी का इंतजाम नहीं कर सकती? अब मानव अधिकार पंच भी आगे नहीं आ रहा है।
यह देख मुझे दु:ख होता है कि, भारतीय पुलिस और एन्टीटेररिस्ट स्क्वॉड जैसी स्थानिक एजेन्सियां आतंकवाद के सामने लडने में नाकाम रही है। यह उनके बस की बात नहीं। भारतीय पुलिस आतंकवाद के सामने लडने में कमजोर है यह मुख्य कारण है लेकिन दूसरा एक कारण उन्हें दिये गये शस्त्र और सुविधाएं है। आज आतंकवादी ए.के. 47 जैसी ऑटोमेटिक गन्स के साथ हमला बोलता है तब भारतीय पुलिस दल वही पुराने जमाने में जी रही है। उनके पास सामान्य कही जाने वाली फालतू पिस्तोल के अलावा कुछ नहीं। ऐसी स्थिति में आतंकवादियों के सामने लडने की उम्मीद रखना उन पर जुल्म होगा। पुलिस प्रशासन एक जिल्लतभरी नौकरी करते है और राजनीतिज्ञों से लेकर वाउचर तक के सभी उनका इस्तेमाल अपना काम करवाने में करते है। पुलिस कोन्स्टेबल तो अपने साहब और मेडम की सेवा में तैनात होते है तब भला वह आम लोगों की हिफाजत कैसे करें? दिल्ली पुलिस फोर्स में 57 हजार पुलिसकर्मी है और 15 हजार पुलिस राजनीतिज्ञों की सुरक्षा में तैनात है। 14 हजार पुलिस 1000 जितने राजनीतिज्ञों की सेवा में लगे हो तब दिल्ली की एक करोड जनता के लिए कितने पुलिसकर्मी बचें? अब बचे हुए पुलिसकर्मी दिल्ली में होते बलात्कार, हत्या, चोरी-डकैती जैसे सामान्य अपराध को रोकें या आतंकवाद से लडें? और यह स्थिति लगभग हर राज्य की है। इसलिए पुलिस आतंकवाद से मुकाबला करेगी ऐसी उम्मीद पालना बेकार है।
आतंकवाद के सामने लडने के लिए अभी हमारे पास एक ही एजेन्सी है, और वो है "नेशनल सिक्योरिटी गार्डस"। एनएसजी के पास कुल 7400 कमान्डो है। एनएसजी दो भागों में बंटा हुआ है। "स्पेश्यल एक्शन ग्रुप" और "स्पेश्यल रेन्जर्स ग्रुप"। इन दोनों ग्रुप को मिलाकर कुल 14500 कमान्डो है लेकिन रेन्जर्स ग्रुप के आधे से ज्यादा यानि कि साडे तीन हजार कमान्डो वीवीआईपीयों की सुरक्षा में तैनात है इसलिए इस देश की 120 करोड जनता के लिए आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए सिर्फ 11000 कमान्डो ही है। मतलब कि हर 10 हजार लोगों के लिए सिर्फ 1 कमान्डो। इससे साफ है कि इस देश के शासनकर्ताओं को देश की जनता की कितनी चिंता है। शासक देश के लोगों की सुरक्षा व्यवस्था में नाइन्साफी तो करते ही है लेकिन उसके लिए बजट में भी नाइन्साफी करते है। 2007-08 में एनएसजी के लिए 159 करोड का बजट आवंटित हुआ था जो इस साल घटाकर 158 करोड कर दिया गया है।
अब जनता की सुरक्षा व्यवस्था के सामने शासक की सुरक्षा व्यवस्था भी देखने जैसी है। भारतीय राजनीतिज्ञों को जो सुरक्षा व्यवस्था मुहैया करवाई जाती है वह कुल पांच केटेगरी में विभाजित है। एसपीजी यानि स्पेश्यल प्रोटेक्शन ग्रुप की सुरक्षा, जेड प्लस, जेड, वाय और एक्स केटेगरी की सुरक्षा। एसपीजी यानि स्पेश्यल प्रोटेक्शन ग्रुप की सुरक्षा देश के प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री को मिलती है। यह सुरक्षा पाने वाले लोगों की संख्या 10 के आसपास है और फिर भी उनके लिए 3000 कमान्डो है और उनके लिए बजट कितना है पता है? पूरे 180 करोड ! गत वर्ष यह बजट 117 करोड था उसे बढाया गया है। देश के 120 करोड लोगों के लिए 11000 कमान्डो और 10 वीवीआईपीयों के लिए 3000 कमान्डो। चूंकि, दूसरे राजनीतिज्ञ भी इसमें पीछे नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी, मायावती, नरेन्द्र मोदी, जयललिथा, मुरली मनोहर जोशी वगैरह 30 जितने राजनीतिज्ञों को जेड प्लस सिक्योरिटी मिलती है जबकि 68 वीआईपीयों को जेड, 243 को वाय और 81 को एक्स केटेगरी की सिक्योरिटी दी जाती है। जेड प्लस सिक्योरिटी पानेवाले राजनीतिज्ञ को एक पाइलट, एक एस्कोर्ट ऐसे दो कार के अलावा 20 जितने अधिकारी-कोन्स्टेबलों की सुरक्षा और लाल लाइटवाली कार मिलती है।
विशिष्ट सरकारी सुरक्षा पानेवाले लोगों की संख्या 500 से ज्यादा नहीं है और उनके लिए सरकार हर साल 250 करोड फूंक देती है। जबकि 120 करोड की जनता के लिए 158 करोड का आवंटन करने भी सरकार को संकोच होता है। राजनीतिज्ञ इस देश की सेवा करते है इसलिए उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाना गलत भी नहीं है लेकिन देश में सुरक्षा का अतिरेक हो रहा है। और दूसरा यह कि सुरक्षा पानेवाले ज्यादातर राजनीतिज्ञ को वास्तव में इस देश की सेवा के कारण नहीं बल्कि उनके किए हुए पापों के कारण खतरा है, इसलिए उन्हें सुरक्षा की जरुरत है। लेकिन उसकी कीमत इस देश की जनता चुका रही है।
दिल्ली के कांग्रेसी नेता सज्जनकुमार को जेड प्लस सिक्योरिटी दी गई है। सज्जनकुमार ने 1984 में सिखविरोधी दंगों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उनके सामने खून के आरोप है। जिस इन्सान के हाथ खून से रंगे है उसे इस देश की जनता की पसीने की कमाई में से सालों से सुरक्षा दी जा रही है। ब्रिजभूषण शरणसिंह नामक एक भाजपा के सांसद है। ब्रिजभूषण गेंगस्टर है और उनके संबंध दाउद इब्राहीम के साथ है। इस इन्सान ने दाउद के आदमियों को अपने यहां रक्खा था और उसे देश की ओर से सुरक्षा दी जा रही है। देशद्रोही और अपराधी सुरक्षा कवच के बीच जी रहे है जबकि सामान्य जनता भगवान भरोसे।
इतना सब कुछ होने के बाद मैं कैसे इस गणतंत्र को मानूं। मेरे लिए गांधी ने देखा था एक सपना। क्या वह सपना पूरा नहीं हो सकता ? क्या मेरे सपूतों ने मेरी आजादी के लिए जो किमत चुकाई थी वह सब व्यर्थ है? आतंकवाद को मजहब के साथ जोडनेवालों को मेरी गुजारिश है कि वे ऐसा न करें, महजब तो इंसानों का होता है, हैवानों का नहीं। मुझे लगता है आज भी मैं गुलामी के जंजीरों से जकडी हुई हूं। क्या मैं सही मायने में आजाद हूं? मैं जिस दिन आजाद हुई थी उस दिन से आप सभी बच्चों को गौरव मिला था भारतीय होने का.... मां भारती के लिए लडने वालों के वंशज इतने कमजोर कैसे हो सकते है? अपनी तकदीर खुद लिखो।
मुझे जवाब दो बच्चों...
जय हिंद

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

जनता की जीत, सोरेन की हार

गुरुवार को झारखंड के मुख्यमंत्री और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के उम्मीदवार शिबू सोरेन तमाड विधानसभा उपचुनाव में झारखंड पार्टी के राजा पीटर से ९०६२ मतों से पराजित हो गए।
सोरेन के भाग्य ने फिर एक बार उनका साथ छोड दिया। इन उपचुनाव के परिणाम से सोरेन के अलावा अन्य राजनीतिज्ञों को जबरदस्त झटका जरुर लगा है। हमारे यहां सामान्य तौर पर उपचुनाव में कोई मुख्यमंत्री हार जायें ऐसा नहीं होता। क्योंकि सोरेन खुद झारखंड के मुख्यमंत्री थे। उनका अपना दबदबा था। ऐसे उपचुनाव में खासतौर पर ऐसे ही मुख्यमंत्री मैदान में उतरते है जिन्हें छह महिने में अनिवार्य विधानसभा में चुनकर आना हो।
छह महिने तक आपने जो काम किया हो उसका प्रभाव खडा होता हो... पूरी सरकारी मशीनरी आपके साथ खडी हो... ऐसे हालात में आपकी जीत पक्की ही होती है लेकिन... आप हार जाओ तो इससे बडी लाचारी ओर कोई नहीं।
सोरेन देश के चुनावी इतिहास में दूसरे मुख्यमंत्री है जो उपचुनाव में पराजित हुए है। इससे पहले १९७१ में उत्तर प्रदेश में त्रिभुवन नारायण सिंह इसी तरह उपचुनाव में पराजित हो गये थे और इस तरह २८ साल बाद उस इतिहास का पुनरावर्तन हुआ है।
खैर, जो हुआ अच्छा ही हुआ। सोरेन को इस पराजय के कारण आघात लगना स्वाभाविक है और दूसरे राजनीतिज्ञों को भी। लेकिन सोरेन जैसे लोग इस तरह दूर होते हो तो यह इस देश की राजनीति के लिए अच्छा ही है। चलिए, सोरेन के सत्ता की सीढियों के बारे में कुछ जानें।
सोरेन के राजनीतिक उतार-चढाव कुछ इस प्रकार है :-
सोरेन के भाग्य में सत्ता सुख ज्यादा समय तक टिकता ही नही है। सोरेन को जब-जब सत्ता मिली तब-तब कोई ना कोई झमेला खडा हो जाता है और उन्हें अपनी गद्दी छोडनी पडती है। चूंकि, सोरेन फिर से सत्ता पा भी लेते है। सोरेन के सत्ता पाने और छोडने के इतिहास पर गौर फरमाइयें।
सोरेन पहली बार केन्द्र में मई, २००४ में मंत्री बने थे और मनमोहनसिंह सरकार में उन्हें कोयला मंत्रालय दिया गया था लेकिन १९७५ में चिरुदीह में लगाई गई आग के केस में उनके सामने वारंट जारी हुआ जिसके चलते दो महिने बाद यानि कि, २४ जुलाई को उन्हें इस्तीफा दे देना पडा था।
चिरुदीह केस में उन्हें जमानत मिलने के बाद नवम्बर २००४ में फिर से केन्द्र में शामिल किया गया। कांग्रेस ने झारखंड में विधानसभा के चुनाव के लिए JMM के साथ हुए समझौते के भागरुप सोरेन को केबिनेट में शामिल किया था। चार महिने बाद मार्च २००५ को सोरेन की पार्टी को झारखंड में सरकार बनाने का निमंत्रण मिलते ही उन्होंने फिर से केन्द्रीय केबिनेट में से इस्तीफा दे दिया था।
सोरेन २ मार्च २००५ को झारखंड के मुख्यमंत्री बने लेकिन विधानसभा में विश्वास मत हासिल नहीं कर सके जिसके कारण उन्हें ९ दिन बाद यानि कि ११ मार्च को इस्तीफा दे देना पडा था।
अप्रैल २००५ में सोरेन को मनमोहन सिंह सरकार में शामिल किया गया था और इस बार उन्होंने एक साल पूरा किया था। जबकि नवम्बर २००६ में अपने निजी सचिव शशिनाथ झा के हत्या के केस में कोर्ट ने सोरेन को उम्रकैद की सजा सुनाई जिसके चलते सोरेन को फिर से इस्तीफा देना पडा था।
सोरेन के लिए फिर से केन्द्र में मंत्रीपद पाने का मौका २००८ में मनमोहन सिंह सरकार को विश्वास मत हासिल करना था तब मिला लेकिन उस वक्त उन्होंने केन्द्रीय केबिनेट में मंत्रीपद हासिल करने के बजाय झारखंड के मुख्यमंत्री पद के लिए सौदेबाजी की। सोरेन के मन में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा इतना जोर मारने लगी थी कि उन्होंने यूपीए का समर्थन करने के बदले में मुख्यमंत्री की कुर्सी मांग ली और अगस्त २००८ में वे झारखंड के मुख्यमंत्री भी बन गये।
सोरेन का इतिहास कलंकित है। उनके जैसे लोग इस देश के लिए बोझ है। सोरेन हजारीबाग जिले के आदिवासी है और उनकी कोम में उन्हें गुरुजी की ख्याति मिली है। लेकिन उनके अंदर गुरुजी जैसे एक भी लक्षण दिखाई नहीं देते। सोरेन पर १९७५ में पडोस के गांव में गुट के साथ घुसकर ९ मुसलमानों को जलाकर मौत के घाट उतारने का आरोप था और इस केस में उनके सामने वारंट भी जारी हुआ था लेकिन उनकी ताकत ने (मेरा मतलब समझ गये ना!) इस केस को निपटा लिया। इसके अलावा उन पर बलात्कार से लेकर हुल्लड तक के कुछेक केस दर्ज है। १९९३ में नरसिंहराव सरकार को विश्वास मत हासिल करना था तब सोरेन ने नोटों की थेलियों के बदले में नरसिंहराव सरकार के समर्थन में वोट देकर संसद को बाजार में बदल दिया था। इस मामले उनके निजी सचिव शशिनाथ झा ने उन्हें ब्लेकमेल करना शुरु किया उसके बाद सोरेन ने ‘झा’ नामक कांटा हमेशा के लिए दूर कर दिया। इस केस में सोरेन को उम्रकैद की सजा भी हुई थी लेकिन वे हाइकोर्ट में बाइजत बरी हो गये। ऐसा महान भूतकाल और वर्तमान जिस शख्स का है वह किसी राज्य का मुख्यमंत्री बने यह घटना ही शर्मनाक है लेकिन हमारे देश में ऐसे वाक्यें कोई नई बात नहीं रही। सोरेन जैसे गुन्हेगारों को गोद में बिठाने में हमें जर्रा सी भी हिचक महसूस नहीं होती। कल भी ऐसे ही लोग सत्ता के सिंहासन पर बैठते रहेंगे।
सोरेन की हार इस देश के राजनीतिज्ञों के लिए एक सबक है। सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री पद पर बैठे उसके पीछे कांग्रेस के साथ उनकी सौदेबाजी जिम्मेवार थी।
झारखंड में आठ साल में छह मुख्यमंत्री बनें, जिससे वहां की राजनीतिक अस्थिरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश को सत्ता लोलुप राननेताओं का बंधक बनने से रोकना होगा। इसके लिए पहल भी जनता को ही करनी होगी। झारखंड की जीत जनता की जीत है, वक्त आ गया है जनता के बोलने का.... जनता बोलेगी जरुर बोलेगी..... लेकिन एक सवाल मेरे मन को कोरे जा रहा है कि, आज चाहें हम सोरेन की हार पर इतना इतरा रहे हो लेकिन सवाल यह है कि यह कितने दिन! सोरेन को राजनीति की दुकान अच्छी तरह चलाना आता है। सोरेन पिछले पांच साल में पांच बार सत्ता में आये और गये। हर बार हारने के बाद वे फिर से सत्ता में वापिस लौटे है उसे देखते हुए मुझे शंका भी है और डर भी कि यह शख्स फिर से ना लौट आयें। मैं चाहुंगी कि मेरी यह सोच गलत साबित हो।
जय हिंद