गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

शहीदों के खून पर अंतुले की सियासत

क्या आतंक के हमदर्द है भारत के नेता ?
हमारे देश में कुछेक राजनेताओं के कारण अक्सर चर्चा का माहौल बना रहता है और अभी सियासत के गलियारों में मुंबई में हुए आतंकी हमलों के मामले फिर से गहमागहमी का माहौल है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने फिर एक बार पलटी मारी है और वही घिसा-पीटा रेकर्ड बजाकर कहा है कि मुंबई पर हमला करने वाले आतंकी पाकिस्तानी थे इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं है। जरदारी ने पूरी जिंदगी कुछ नहीं किया है और वे पाकिस्तानी है। ऐसे में हम उनसे कौन सी उम्मीद कर सकते है? जरदारी ने आतंकी सरदार मौलाना मसूद अजहर के मामले भी अपना पल्ला झाड लिया है। अभी कुछ दिनों पहले ही मसूद को नजरकैद रक्खा गया है ऐसी घोषणा करने वाले जरदारी ने अचानक ही पलटी मारकर घोषणा कर दी कि हमारे पास मसूद का कोई अता-पता नहीं है।
एक ओर पाकिस्तान झूठ पे झूठ बोल रहा है वहीं हमारे देश के राजनेता भी उल्टे-पुल्टे निर्णय लेकर अपना मन मनाने में जुटे है। इसी कवायत के चलते सरकार ने भारतीय क्रिकेट टीम का पाकिस्तान प्रवास भी रद्द कर दिया है। दूसरी ओर रक्षा मंत्री ए.के.एन्टोनी ने सेना के तीनों दलों के अध्यक्षों की बैठक बुलाई जिसे देख हमें कुछ आशा बंधी थी कि चलो अब तो पाकिस्तान को सबक सीखाने के लिए हमने ठानी है वही एन्टोनी ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान के सामने युद्ध का कोई इरादा नहीं है और हमारा सारा जुनून यही चकनाचूर हो गया।
यह इस देश की बदनसीबी है कि इन जख्मों के चलते अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने मुंबई हमले के समय शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर विवादास्पद बयान दिया है। कुछ अंतुले के बारे में जानें। अब्दुल रहमान अंतुले महाराष्ट्र के रायगढ जिले के मुस्लिम परिवार से है। पेशा वकीलात का है और मुंबई युनिवर्सिटी एवं लंदन में लिंकन इन्स्टीटयूट में पढे है। लेकिन उन्होंने वकीलात कम और नेहरु-गांधी परिवार की भक्ति ज्यादा की है और उनकी भक्ति का उन्हें अच्छी मात्रा में फल भी मिला है। जिस तरह श्रीराम का नाम लेकर समुद्र में डाले हुए पत्थर तैर गए थे उसी तरह इस देश में नेहरु-गांधी खानदान के नाम से बहुत सारे पत्थरों का बेडा पार हुआ है जिसमें अंतुले भी शामिल है। अंतुले 1962 में विधान परिषद के सदस्य चुने गए और यही से उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1976 तक वे विधान परिषद में चुनकर आते रहे और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद पर रह चुके है। उस वक्त उनकी गिनती बडे नेताओं के तौर पर तो नहीं होती थी लेकिन 1977 में आपातकाल के बाद इन्दिरा गांधी हार गई थी तब शरद पवार सहित अन्य दिग्ग्ज इन्दिरा के डूबते जहाज को छोडकर भाग खडे हुए थे तब अंतुले ने इन्दिरा और संजय के साथ खडे रहकर उनकी तन, मन और धन से सेवा की थी। 1980 में इन्दिरा ने जबरदस्त पुन:आगमन किया तब उन्होंने अंतुले की तीन साल की सेवा बदले में उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद देकर उनकी सेवा की कद्र की थी। उस वक्त क्वॉटा सिस्टम था और सिमेन्ट का आवंटन क्वॉटा के जरिये होता था। बिल्डरों को ज्यादा सिमेन्ट लेने के लिए राजनेताओं के आगे-पीछे घुमना पडता था। अंतुले ने इस मौके का भरपूर लाभ उठाया और इन्दिरा गांधी प्रतिष्ठान ट्रस्ट सहित कुछेक ट्रस्ट भी खडे कर दिये थे। जो बिल्डर इस ट्रस्ट को दान देता उसे अंतुले केन्द्र में से ज्यादा सिमेन्ट दिलवा देते। बाद में इस कारस्तान का भांडा फूटा और मुंबई हाइकोर्ट ने फिरौती वसूलने के आरोप में अंतुले को दोषी ठहराया। इस फैसले के चलते अंतुले को इस्तीफा देना पडा। उसके बाद अंतुले महाराष्ट्र की राजनीति में से गायब हो गए और लोकसभा में चुनकर आते रहे। बाद में केन्द्रीय मंत्री बनते रहे है लेकिन अब पहले वाला प्रभाव नहीं रहा।
देश जब दहशतगर्दी के खिलाफ जंग के नाजुक मोड पर है तब राजनीति कलाबाजी से सुर्खियों में छाये अंतुले संप्रदायवाद को बढावा दे रहे है। मुंबई विस्फोट में पूर्व एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर अंतुले ने जिस प्रकार जहर उगला है उससे सांप्रदायिकता की बू आती है। वह कह रहे है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों को भला क्या जरूरत थी कि वे चुनकर हेमंत करकरे, अशोक कामटे और विजय सालस्कर को ही मारते? वह यही चुप नहीं रहे। अब वह राष्ट्रीय जांच एजेन्सी (NIA) के गठन की भी आलोचना कर रहे हैं।
अंतुले के मुताबिक हेमंत करकरे के मौत के पीछे हिन्दुवादी का हाथ है। अंतुले ने कुबूल किया है कि करकरे और उनके साथियों की मौत आतंकियों द्वारा हुई लेकिन इसके साथ वे यह भी कह रहे है कि उन्हें कामा अस्पताल की ओर किसने भेजा। करकरे और उनके साथी पुलिस डिपार्टमेन्ट में थे और पुलिस का फर्ज है कि वे लोगों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करे। कसाब और उसका साथी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की ओर भागकर टाइम्स ऑफ इन्डिया की ओर गए ऐसी खबर मिलते ही करकरे अपने साथियों को लेकर वहां जांच हेतु पहुंचे। करकरे एटीएस के चीफ थे और ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए यह उन्हें खुद तय करना था और उन्होंने वही किया। अंतुले करकरे जैसे जांबाज से क्या उम्मीद रखते है? यह कि वे भी इस देश के नेताओं की तरह अपने बिलों में छिप जाये और आतंकवादी निर्दोष लोगों को मारकर चले जाये तब फांके मारने के लिए बाहर निकले? एक सच्चे पुलिस अधिकारी की तरह वे खुद आतंकवादियों को ढूंढने गये लेकिन बदनसीबी से अंधेरे के कारण पेड के पीछे छिपे आतंकवादी उन्हें नहीं दिखे। अंतुले के बयान में कोई दम नहीं और न ही शक की कोई गुंजाइश है। अंतुले केन्द्रीय मंत्री है और अगर कल को पाकिस्तान उनके बयान से चौंककर ऐसा कहे कि भारत सरकार का ही एक मंत्री कह रहा है कि मुंबई में पुलिस अधिकारियों को मारनेवाला पाकिस्तानी आतंकवादी नहीं थे भारत के ही हिन्दुवादी थे तब क्या कहोगे आप? अंतुले तो अपना पल्ला झाडकर चले जायेंगे लेकिन हिन्दुवादियों को आतंकी दिखाने की चेष्टा की कीमत कांग्रेस को ही चुकानी पडेगी।
उनकी टिप्पणियों से तो ऐसा लगता है कि वे भारत के मंत्री न होकर पाकिस्तान के मंत्री है। अंतुले ने तो इस हद तक कहा था कि आतंकवादियों के पास करकरे की हत्या करने के लिए कोई कारण ही नहीं था इसलिए उन्हें करकरे की हत्या के पीछे आशंका है। वैसे देखा जाये तो आतंकवादियों के पास निर्दोष लोगों को मौत देने के लिए भी कोई वजह नहीं थी। इसका मतलब यह हुआ कि मुंबई के हमलों में जो लोग मरे है उनकी हत्या भी आतंकवादियों ने नहीं की?
अंतुले का बयान मनमोहन सिंह सरकार की धज्जियां उडाने वाला है। करकरे आतंकवादी हमले में मारे गए है ऐसा सरकार ने घोषित किया था और अब उनकी सरकार का एक मंत्री सरकार के सामने सवाल उठा रहा है और वो भी लोकसभा में। ऐसी गुस्ताखी के लिए मनमोहन सिंह को तो ऐसे अंतुले जैसे लोगों को लात मारकर भगा देना चाहिए। जो इन्सान अपनी सरकार की कही बात के खिलाफ आपत्ति उठाये ऐसे लोगों को पार्टी में रखकर करना क्या है। अंतुले का बयान देशद्रोही बयान है। अंतुले जैसे कुत्तों के भौंकने पर करकरे जैसे शहीदों की शहादत की कीमत कतई कम नहीं होगी।
जाहिर सी बात है कि अंतुले के दिल में इन दिनों अपनी कौम के लिए ज्यादा प्यार उमड रहा है। उनकी बयानबाजी से आतंकवाद के सामने हमारी जंग कमजोर होती जा रही है। करकरे की मौत पर सवाल उठाकर अंतुले पाकिस्तान के हाथ में खेल रहे है। हमारा पडोशी देश अंतुले से खुश है। पाकिस्तानी अखबार उनकी प्रशंसा में जुटे है।
इस देश के राजनेताओं को आतंकवाद जैसे गंभीर मसलों में भी वोटबैंक के लाभ के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता इसका यह सुबूत है। अंतुले खुद मुस्लिम है इसलिए उन्हें मुस्लिम वोटों के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। एक बात तो बताना ही भूल गई कि अंतुले ने ऐसा बयान पहली बार नहीं दिया है। वर्ष 2006 में कैबिनेट की बैठक में उन्होंने महाराष्ट्र के नांदेड में हिन्दुवादियों ने ब्लास्ट करवाया है ऐसी टिप्पणी की और उस वक्त भी उन्होंने सरकार की हालत पतली कर दी थी। कल तक इस शख्स को कोई नहीं जानता था। केन्द्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री है लेकिन अभी तक उन्होंने इस मंत्रालय में कोई काम नहीं किया। मुस्लिम समाज भी इस मंत्री से अनजान है। दूसरे शब्दों में कहे तो वे भी सिर्फ नाम के ही मंत्री है।
शाबाश मि. अंतुले! आपके दिमाग और इन्वेस्टीगेशन वकीलात के लिए सभी भारतीयों को आप पर नाज है। मुंबई में आतंकवादियों ने लोगों को खून से नहला दिया। पूरा मुंबई आतंक के बारूद पर बैठकर थर-थर कांप रहा था। लोग डरे हुए थे और ऐसी स्थिति में सिर्फ दस मिनट में ही किसी हिन्दुवादी संगठन ने करकरे को मौत की नींद सुलाने का प्लान बना लिया, कुछ ही मिनटों में हत्यारों की फौज तैयार कर दी और कुछ ही मिनटों में करकरे का लोकेशन ढूंढ लिया और पलभर में ही ए.के.47 की व्यवस्था कर करकरे के हेल्मेट के आरपार गोलीयां चला दी। ऐसी आपकी थियरी जानने के बाद सवाल पूछना चाहती हूं कि आपको वकील बनाया किसने?
मुंबई वारदात के बाद देश का बहुजन मुस्लिम समाज खुद दु:खी है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए मुस्लिमों ने जगह-जगह बंदगी की है। आपकी इस गंदी टिप्पणी से न ही कांग्रेस खुश हुआ है और न ही मुस्लिम समाज लेकिन हां! आपने पाकिस्तान को जरूरत से ज्यादा खुशी दे दी है।
मुझे तो लगता है अंतुले पाकिस्तान के आईएसएस के भारतीय एजेन्ट है। यह बेहद अफसोस की बात है। अंतुले को अगर मुस्लिमों का मसीहा बनना ही था तो उनके पास और भी मुद्दे थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर रहकर भ्रष्टाचार कर जो करोडों रुपये जमा किये है उन रुपयों को मुस्लिम बच्चों की पढाई में खर्च करना चाहिए था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कहा है कि हेमंत करकरे और उनके दो साथी पाकिस्तान से आए आतंकवादियों के गोलियों से शहीद हुए है। अब इन दोनों में से सही कौन? दिल्ली के मंत्री या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री?
अब बात करते है जेठमलानी की। अंतुले ने जो बयान दिया उसे जेठमलानी ने कुछ ओर तरीके से पेश किया है। मुंबई में हुए आतंकी हमले के वक्त अनगिनत लोगों की लाशें बिछाकर भाग रहे अजमल कसाब नामक आतंकी पुलिस के हाथों पकडा गया। यह कसाब पाकिस्तानी है, हत्यारा है। और इस हत्यारे के सामने मुंबई की कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल होनेवाला है लेकिन समस्या यह है कि उसकी ओर से कोर्ट में एक भी वकील मुकद्दमा लडने को तैयार नहीं है। इसबार इन वकीलों में देशप्रेम का जुनून सवार है। इसलिए मुंबई बार एसोसिएशन ने प्रस्ताव पारित किया है इसलिए कसाब का केस कोई वकील नहीं लडेगा। इस प्रस्ताव के कारण जेठमलानी ने अपना बयान देते हुए कहा है कि कसाब को अपना बचाव करने का पूरा हक है। जिसने बेरहमी से इतने सारे लोगों को मौत की नींद सुलाया हो। जो इस देश के सामने जंग छेडने की बात करता हो। जो इस देश के कानूनों को नहीं मानता क्या उसे अपने बचाव का हक है? मुस्लिम बिरादर को पूछे जाने पर कि कसाब को कैसी सजा देनी चाहिए पर उन्होंने क्या कहा पता है कि कसाब पर कोई मुकद्दमा न चलाकर उसे तुरंत फांसी दे देनी चाहिए। और मेरी इस बात में पूरा देश सहमत होगा। मुझे अफसोस रहेगा कि हमें आतंकवादियों के लिए हमदर्द ढूंढने ओर कही जाने की जरुरत नहीं है।
अंतुले से मेरी दरख्वास्त है कि वे हिन्दू-मुस्लिम आतंकवाद के चक्कर में न पडे। देश को धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास छोड दें। और जितनी जल्द हो सके वह अल्पसंख्यक मंत्रालय को किसी अच्छे, सच्चे, ईमानदार व्यक्ति के लिए छोड दें और पाकिस्तान चले जाये।
अंत में, जब अंतुले का सिमेन्ट कौभांड का भांडा फूटा था तब एक झुमला चला था...
कुछ सोने से तुले, कुछ चांदी से तुले
रह गये थे अन-तुले, वो सिमेन्ट से तुले
जय हिंद

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

आडवाणी को क्या हक है ?


मुंबई पर हुए आतंकी हमले से अभी देश पूरी तरह उभरा भी नहीं है। ऐसी स्थिति के चलते राजनैतिक तमाशा करने वाले कुछेक राजनेता अपना बनावटी गुस्सा दिखाने में मशगुल हो गये है। लगता है इन सभी की अंतरात्मा अचानक ही जाग गई हो। और इन नेताओं का इस्तीफों का दौर चल रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा शिवराज पाटिल को चलता करना और पी. चिदंबरम को गृहमंत्री बनाना वही दूसरी और शरद पवार ने उनकी पार्टी के आर.आर.पाटिल को रवाना कर दिया है और अपने भतीजे अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद पर बिठाने की रणनीति बनाई है। अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की बलि चढ गई है। देशमुख के स्थान पर किसे रखना है इसका निर्णय मेडम सोनिया तय करे इतनी ही देर है। सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चौहान के नामों की चर्चा चल रही है। इस निर्णय से कोई ज्यादा फर्क पडने वाला नहीं है। यह तो राहु की जगह केतु को बिठाने जैसा हुआ। एक ओर कांग्रेस और मनमोहन सिंह यह अर्थहीन काम कर समय बरबाद करने में व्यस्त है तब भाजपा का ड्रामा शुरु हो गया है। अब जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर है तब भाजपा की सोच है कि मनमोहन सरकार आतंकवाद के सामने लडने में पूरी तरह विफल गई है और उसे बैठे बिठाये अच्छा खासा मुद्दा मिल गया है और इस कारण वह पूरे जोश में इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरने में लगी है। भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहले ही आडवाणी का नाम घोषित किया है इसलिए स्वाभाविक है कि आडवाणी सबसे ज्यादा जोश में है और इस कारण सबसे ज्यादा फूदक रहे है।
आडवाणी को ऐसा लग रहा है मानो उन्हें अभी से ही प्रधानमंत्री पद मिल गया हो। यह बात सही है कि अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और मुंबई में हुए हमले के लिए वह जिम्मेदार है लेकिन भाजपा को और खासकर आडवाणी को आतंकवाद के मुद्दे पर कुछ भी कहने का अधिकार है ? जर्रा सा भी नहीं। आडवाणी और भाजपा के नेतागण आज चाहे इतने फाके मारते हो और मर्दानगी दिखा रहे हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अभी देश में आतंकवाद के लिए जितनी कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है उतनी ही जिम्मेदार मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार भी है और अगर देश में हुए आतंकवाद के लिए हम शिवराज पाटिल को पेट भरकर गालियां दे सकते है तो आडवाणी भी उतने ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा गालियां खाने के हकदार है क्योंकि शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान जितने आतंकवादी हमले हुए उससे भी ज्यादा हमले आडवाणी के गृहमंत्री पद के कार्यकाल के दौरान हुए थे। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो यह है कि शिवराज पाटिल ने नैतिकता का नाटक कर गृहमंत्री पद छोड दिया जबकि आडवाणी तो एक के बाद एक हमले होने के बावजूद भी गृहमंत्री पद से चिटके रहे थे। बेशर्मी की हद तो वह थी कि उन्होंने प्रमोशन लिया था और गृहमंत्री में से उपप्रधानमंत्री बन गए थे। आज वही आडवाणी अपनी चतुराई दिखाकर आतंकवाद से लडने की सलाह दे रहे है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आडवाणी किस मुंह से यह बात कह रहे है। ऐसा कहा जाता है कि राजनीतिज्ञों की खाल मोटी होती है और आडवाणी इस बात का सबूत है।
आडवाणी छह साल तक गृहमंत्री पद पर रहे और इस देश के लिए यह समय आतंकवाद से मुकाबला करने में सबसे ज्यादा खराब समय रहा था। इस देश में काश्मीर, पंजाब या उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद था लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर-दक्षिण भारत के राज्यों में आतंकवाद नहीं था। इन क्षेत्रों में आतंकवाद की शुरुआत 1998 में लोकसभा चुनाव से पहले कोयम्बतुर में सिरियल ब्लास्ट से हुई। यह हमला आडवाणी को टारगेट बनाकर किया गया था। इस हमले के बाद तुरंत केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और वास्तव में आडवाणी को आतंक का दानव उसी वक्त कुचल देना चाहिए था लेकिन आडवाणी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई और उसकी किमत हम सब आज चुका रहे है। 1998 से 2004 के मई तक केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और इस समय के दौरान देश में आतंकवाद की 36 हजार से ज्यादा वारदातें हुई और 12 हजार से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। इन वारदातों को रोकने में आडवाणी पूरी तरह विफल गए थे।
आडवाणी के कार्यकाल में आतंकवाद की चरमसीमा देखने को मिली थी और इस देश की संसद पर हमला हुआ था, भारतीय सेना का जहा हेडक्वार्टर है उस लाल किले पर हमला हुआ था और बावजूद इसके आडवाणी ने हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कुछ भी नहीं किया था। मुंबई के हमले से वह हमला ज्यादा बडा था और वह हमला हमारे स्वाभिमान पर हुआ था। वास्तव में उस वक्त ही आतंकवादियों को पालनेवालों को मुंहतोड जवाब देना चाहिए था उन्हें उनकी नानी याद दिलाने की जरुरत थी। इस काम को अंजाम देने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी थे और आईएसआई ने उन्हें भेजा था उसके सबूत मौजूद होने के बावजूद भी आडवाणी या भाजपा सरकार पाकिस्तान पर आक्रमण की बात तो दूर उनकी पूंछ पकडे रहने में मशगुल रही। उनके साथ दोस्ती के ख्वाब देखती रही।
भाजपा के शासनकाल के दौरान इस देश के लोगों का राष्ट्राभिमान चकनाचूर हो जाये ऐसी दो वारदातें भी हुई। 1998 में ही वाजपेयी उपप्रधानमंत्री थे तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों के बलबूते पर कारगिल पर कब्जा करने की कोशिश की उस समय काश्मीर के अंदर घुस आए आतंकवादी सही सलामत पाकिस्तान पहुंचे इसकी व्यवस्था वाजपेयी सरकार ने की थी। उस समय इस देश में घुस आए आतंकवादियों की कब्र वही पर बनाने की जरुरत थी लेकिन वाजपेयी ने उन्हें जाने दिया। भारत के पास आतंकवाद से लडने की ताकत नहीं है इसका यह पहला सबूत था। ऐसी दूसरी वारदात कंदहार विमान कांड था। पांच आतंकवादियों ने हमारे विमान का अपहरण किया और प्रवासियों के बदले में तीन खूंखार आतंकवादियों की मांग की तब भी हमने घूटने टेक दिये थे। हमारे देश के विदेश मंत्री बैंडबाजे के साथ खास विमान में इन तीन आतंकवादियों को कंदहार ले गए और उन्हें सौंप कर हमारी इज्जत की धज्जियां उडा आए। उस वक्त भी आडवाणी उपप्रधानमंत्री थे। यह सब देखने के बाद आडवाणी को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें आतंकवाद के सामने बोलने का हक है? आडवाणी और उनके जैसे भाजपा के नेता आज आतंकवाद के सामने लडने की बात आती है तब ‘पोटा’ और अन्य कहानियां शुरु कर देते है। भाजपा के छह साल के शासन काल के दौरान पोटा भी था और पावर भी था तब वाजपेयी सरकार आतंकवाद को क्यों रोक नहीं पाई?
आतंकवाद को रोकने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए, आक्रमकता चाहिए उसके लिए जरुरी नहीं कि आप किस पार्टी से हो। और यह काम आडवाणी या मनमोहन जैसे नेताओं के बस की बात नहीं है। 1971 में स्व। इन्दिरा गांधी ने अमरिका के पश्चिम के दूसरे देशों की धमकियों को भूल कर पाकिस्तान पर हमला करवाया और एक साथ पाकिस्तान के दो टुकडे कर दिये थे। 1984 में स्व. इन्दिरा ने पलभर में निर्णय लेकर सुवर्ण मंदिर में सेना भेजकर आतंकवादी भिंडरानवाले और उनके साथियों की लाशें बिछा दी थी। मनमोहन उसी कांग्रेस के प्रधानमंत्री है फिर भी वह न पाकिस्तान पर हमला कर सकते है और न ही आतंकवादियों को उनकी नानी याद दिला सकते है क्योंकि उनके अंदर स्व.इन्दिरा जैसी मर्दानगी या जज्बा नहीं है। आडवाणी भी उसी केटेगरी के है। यह उन्होंने 1998 से 2004 के दौरान साबित कर दिखाया है। अफसरशाही से अलग आज तक न कोई मंत्री कुछ सोच पाया है और न सोच पाएगा। असल में देश में मंत्रियों की ऐसी फौज काम कर रही है जो किसी काम की नहीं। न उनमें सूझबूझ है और न ही योग्यता।
आतंक के आगे हिंदुस्तान कभी हारेगा नहीं
सत्य जीतता रहेगा सत्ता हारती रहेगी
जय हिंद